
अर्णब गोस्वामी की पत्रकारिता पर सवाल — क्या यह निष्पक्ष और तथ्यपरक है या केवल आक्रामक राष्ट्रवादी प्रचार?
करीब 15 आपराधिक और सिविल केस दर्ज, अब तक कोई सजा या जुर्माना नहीं; केवल एक मामले में 7 दिन की न्यायिक हिरासत।
मानहानि कानून आज भी आपराधिक, ब्रिटिश राज की विरासत, जबकि अधिकांश देशों में इसे खत्म किया जा चुका है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला (सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ) — अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रतिष्ठा दोनों ही मौलिक अधिकार, संतुलन जरूरी।
आक्रामक और पक्षपाती टीवी पत्रकारिता से दर्शकों का मोहभंग; Kantar Media Compass, TAM और रॉयटर्स रिपोर्ट के अनुसार टीवी व्यूअरशिप में 16% तक गिरावट और 23% दर्शक अब पूरी तरह डिजिटल विकल्पों की ओर।
कांग्रेस की याचिका में रणनीतिक संशोधन पर सवाल — क्या यह प्रतीकात्मक दबाव था या कानूनी मजबूरी? संशोधन से मामला कानूनी और राजनीतिक दोनों स्तर पर नया मोड़ ले सकता है।
अहमदाबाद, 15 जुलाई 2025, कांग्रेस नेता पवन खेड़ा ने हाल ही में रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ अर्णब गोस्वामी पर दिल्ली हाईकोर्ट में मानहानि का मुकदमा दायर कर एक नया सियासी और कानूनी मोर्चा खोल दिया है। यह मुकदमा गोस्वामी द्वारा ‘ऑपरेशन सिंदूर’ नामक कार्यक्रम में कांग्रेस पार्टी पर लगाए गए गंभीर आरोपों पर आधारित है। भारत और पाकिस्तान के बीच तनावपूर्ण हालात के दौरान गोस्वामी ने अपने शो में कथित रूप से कहा था: “कांग्रेस पार्टी राष्ट्र के दुश्मनों के साथ खड़ी है।”
पवन खेड़ा का आरोप है कि इस टिप्पणी ने कांग्रेस पार्टी की छवि को गहरा नुकसान पहुँचाया और उसके समर्थकों की निष्ठा पर गंभीर सवाल खड़े किए। दिल्ली हाईकोर्ट ने प्रारंभिक सुनवाई में स्पष्ट किया कि यह बयान व्यक्तिगत नहीं, बल्कि पार्टी के खिलाफ था। ऐसे में पवन खेड़ा द्वारा इसे व्यक्तिगत हैसियत में दायर करना कानूनी दृष्टि से सवालों के घेरे में आ गया है।
अदालत ने 7 जुलाई 2025 को पारित आदेश में याचिकाकर्ता को याचिका में संशोधन कर कांग्रेस पार्टी को पक्षकार बनाने का आदेश दिया। यह प्रकरण केवल एक कानूनी विवाद नहीं, बल्कि भारतीय पत्रकारिता की स्वतंत्रता, राजनीतिक विमर्श और मानहानि कानून के बीच के जटिल रिश्तों पर एक गहन बहस को जन्म देता है।
अर्णब गोस्वामी: करियर, विवाद और कानूनी पड़ताल
अर्णब गोस्वामी का जन्म 7 मार्च 1973 को गुवाहाटी, असम में हुआ। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से समाजशास्त्र में स्नातक और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से सोशल एंथ्रोपोलॉजी में परास्नातक की डिग्री प्राप्त की। पत्रकारिता करियर की शुरुआत द टेलीग्राफ (कोलकाता) से की, इसके बाद NDTV में रिपोर्टर और एंकर के रूप में कार्य किया। वर्ष 2006 में वे टाइम्स नाऊ के एडिटर-इन-चीफ बने और “The Newshour” शो के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुए। 2017 में उन्होंने रिपब्लिक टीवी की स्थापना की, जिसमें वे संपादक और प्रमोटर की भूमिका निभा रहे हैं।
उनकी पत्रकारिता शैली को अक्सर आक्रामक और राष्ट्रवादी कहा जाता है। समर्थकों की नजर में वह निर्भीक और स्पष्टवादी पत्रकार हैं, जबकि आलोचकों के अनुसार वे ध्रुवीकरण और शोर-शराबे वाली पत्रकारिता के प्रतीक बन चुके हैं।
अर्णब गोस्वामी के खिलाफ अब तक कई सिविल और आपराधिक मामले दर्ज होने की बात विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स और सार्वजनिक दस्तावेजों में सामने आई है। कुछ रिपोर्ट्स में इनकी संख्या करीब 15 बताई गई है, लेकिन इसका कोई एक आधिकारिक संकलित आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। इनमें मानहानि, आत्महत्या के लिए उकसाना, TRP घोटाला और अन्य विवाद शामिल हैं। हालांकि, इन मामलों की सटीक संख्या, उनकी वर्तमान स्थिति और सजा या जमानत से जुड़ी अद्यतन जानकारी केवल सीमित और बिखरे स्रोतों में ही उपलब्ध है।
TRP फर्जीवाड़ा केस (2020) को मार्च 2024 में मुंबई की मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट अदालत ने वापस लेने की अनुमति दी। अपूर्व नाइक आत्महत्या केस (2018) में 4 नवंबर 2020 को गिरफ्तारी हुई, जिसमें लगभग सात दिन जेल में रहने के बाद सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली। शशि थरूर मानहानि केस (2017) और युथ कांग्रेस मानहानि केस (2025) जैसे मामले अभी भी लंबित हैं। अब तक किसी भी मामले में उन्हें सजा या जुर्माना नहीं हुआ है; केवल एक मामले में सात दिन जेल में रहना पड़ा।
इसके अलावा, मई 2022 में कांग्रेस नेता पवन खेड़ा ने राजस्थान के उदयपुर के अंबामाता पुलिस स्टेशन में गोस्वामी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई थी। यह शिकायत अलवर जिले के राजगढ़ में मंदिर विध्वंस अभियान की रिपब्लिक भारत चैनल द्वारा की गई कवरेज को लेकर थी, जिसमें आरोप था कि प्रसारण ने धार्मिक समुदायों के बीच दुश्मनी फैलाने की कोशिश की। इस एफआईआर को चुनौती देते हुए गोस्वामी ने राजस्थान हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की।
3 मार्च 2025 को राजस्थान हाईकोर्ट के जस्टिस फरंजंद अली ने पाया कि एफआईआर में भारतीय दंड संहिता की धारा 153A (धार्मिक समूहों के बीच शत्रुता फैलाना) के तहत कोई ठोस सामग्री या पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं। कोर्ट ने कहा कि एफआईआर में ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हैं, जो गोस्वामी की दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त हों, और यह जांच पत्रकारिता की स्वतंत्रता को बाधित करने का प्रयास प्रतीत होती है।
अदालत ने गोस्वामी के खिलाफ किसी भी दंडात्मक कार्रवाई पर रोक लगाते हुए आदेश दिया कि जब तक मुख्य याचिका का निपटारा नहीं होता, तब तक कोई कठोर कदम नहीं उठाया जाए। गोस्वामी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता महेश जेठमलानी ने पक्ष रखा और दलील दी कि यह एफआईआर राजनीति से प्रेरित है तथा रिपब्लिक नेटवर्क को कानूनी मामलों में उलझाकर दबाव बनाने की कोशिश है।
सम्मान, स्वतंत्रता और सजा: मानहानि कानून का विमर्श
मानहानि (Defamation) क्या है?
किसी व्यक्ति, संगठन, संस्था या कंपनी की प्रतिष्ठा को झूठे, भ्रामक या अपमानजनक बयानों एवं अफवाहों के माध्यम से हानि पहुँचाना या बदनाम करना ही मानहानि कहलाता है। यह बोले गए शब्दों, लिखित बयानों, संकेतों या दृश्य प्रस्तुतियों के माध्यम से भी की जा सकती है।
भारत में मानहानि कानून की जड़ें ब्रिटिश राज के समय की विधि व्यवस्था में स्थापित हुईं। भारतीय दंड संहिता (IPC) का प्रारूप 1860 में तैयार और अधिसूचित किया गया, जिसे 1 जनवरी 1862 से लागू किया गया। IPC की धारा 499 और 500 में मानहानि को अपराध के रूप में परिभाषित किया गया, जिसमें अधिकतम दो साल की सजा, जुर्माना या दोनों का प्रावधान था।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कई पुराने ब्रिटिश कानूनों को समाप्त कर दिया गया, परंतु मानहानि कानून को जारी रखा गया। यह संकेत करता है कि प्रतिष्ठा की रक्षा को भारतीय संविधान और न्यायिक प्रणाली में अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है।
हाल ही में भारतीय दंड संहिता के स्थान पर भारतीय न्याय संहिता (BNS) लागू की गई है, जिसमें मानहानि को धारा 356 में शामिल किया गया है। पुराने प्रावधान की तरह इसमें भी अधिकतम दो साल की सजा, जुर्माना या दोनों का प्रावधान रखा गया है। एक महत्वपूर्ण बदलाव यह है कि अब इसमें सामुदायिक सेवा जैसे सुधारात्मक विकल्प भी जोड़े गए हैं। इसका उद्देश्य सजा को केवल दंडात्मक न रखकर समाजहित में सुधारात्मक बनाना है, जैसे सफाई अभियान, जन-जागरूकता कार्यक्रम या सामाजिक सेवा कार्य।
भारत समेत कई देशों में मानहानि को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है: आपराधिक मानहानि (Criminal Defamation) और सिविल मानहानि (Civil Defamation)। आपराधिक मानहानि में पुलिस केस, गिरफ्तारी और दोष सिद्ध होने पर जेल या जुर्माना अथवा दोनों का प्रावधान होता है। वहीं, सिविल मानहानि में आपराधिक सजा नहीं होती; इसमें केवल आर्थिक क्षतिपूर्ति (monetary compensation) का प्रावधान होता है।
2016 के ऐतिहासिक सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ फैसले में आपराधिक मानहानि की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे अस्वीकार करते हुए कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं है और इसे दूसरों की प्रतिष्ठा (अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा के अधिकार) के साथ संतुलित करना आवश्यक है।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि केवल वही बयान मानहानिकारक माने जाएंगे जो किसी व्यक्ति की छवि या सामाजिक प्रतिष्ठा को वास्तविक और प्रत्यक्ष रूप से नुकसान पहुँचाते हैं। कोर्ट ने कहा कि सच्चाई का बचाव तभी मान्य होगा जब वह जनहित में कही गई हो — केवल बदनाम करने के लिए कही गई सच्चाई भी संरक्षित नहीं होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि आपराधिक मानहानि कानून सामाजिक सौहार्द और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अत्यंत महत्वपूर्ण है, पर इसकी सीमाएँ हैं, और ये सीमाएँ व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और गरिमा की रक्षा के लिए न्यायसंगत मानी जाती हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो अधिकांश यूरोपीय देशों ने आपराधिक मानहानि को समाप्त कर दिया है। अमेरिका में भी इसे केवल सिविल क्षतिपूर्ति तक सीमित रखा गया है — वहां मानहानि के मामलों में जेल नहीं होती, बल्कि केवल आर्थिक हर्जाना देना पड़ता है। वहीं भारत में इसे अभी भी सामाजिक संतुलन और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक माना जाता है।
टीवी से डिजिटल की ओर दर्शकों का बदलता रुख
भारत में टीवी समाचार चैनलों का बढ़ता शोर-शराबा, चीखते एंकर, सनसनीखेज हेडलाइंस और बहसों के नाम पर की जाने वाली उग्र टिप्पणियां दर्शकों को लगातार टीवी से दूर धकेल रही हैं। कई प्रमुख एंकरों की आक्रामक और पक्षपाती प्रस्तुति ने दर्शकों के मन में विश्वसनीयता को लेकर गहरी दरार पैदा कर दी है। कई दर्शक इसे सिर्फ एक थियेट्रिकल ड्रामा (रंगमंच का नाटक) मानते हैं, जिससे धीरे-धीरे वे इससे दूर होते जा रहे हैं। भारत में सूचना ग्रहण करने की आदतें भी तेजी से बदल रही हैं।
दर्शक अब फिक्स शेड्यूल वाली पारंपरिक लीनियर टीवी खिड़की में बंधने के बजाय, ऑन-डिमांड, शांत और अधिक विश्वसनीय डिजिटल विकल्पों की ओर झुक रहे हैं। यही वजह है कि द इकोनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित Kantar Media Compass Q1 2025 रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि भारत में अब 23% दर्शक पूरी तरह डिजिटल-ओनली हो चुके हैं। वहीं, द स्टेट ऑफ टीवी ऑडियंस मेजरमेंट इन इंडिया– 2024, (TAM) के मुताबिक, कुल टीवी व्यूअरशिप में पहले ही 16% गिरावट दर्ज की गई है, जिसमें हिंदी बाजार में 6% और दक्षिण भारत में 10% की गिरावट शामिल है।
इसी प्रवृत्ति को रॉयटर्स इंस्टीट्यूट डिजिटल न्यूज रिपोर्ट (2025) भी मजबूती देती है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 76% अंग्रेज़ी-भाषी ऑनलाइन यूजर्स अब डिजिटल प्लेटफॉर्म को अपना प्राथमिक समाचार स्रोत मानते हैं, जबकि टीवी और प्रिंट की पहुँच क्रमशः घटकर 46% और 39% तक रह गई है। साथ ही, 59% लोग YouTube और 46% लोग WhatsApp जैसे प्लेटफार्म पर समाचार देखना और साझा करना पसंद करते हैं।
यह बदलाव सिर्फ तकनीक का नहीं, बल्कि भरोसे और स्वतंत्र विकल्प के अधिकार का भी है। आज का दर्शक किसी भी एजेंडा-प्रधान, पक्षपातपूर्ण या हंगामेदार बहसों से दूर रहकर अपनी मर्जी और सुविधा से जानकारी पाना चाहता है। यही कारण है कि भारत का मीडिया परिदृश्य तेजी से बदल रहा है और टीवी समाचार चैनलों के लिए यह एक साफ चेतावनी है कि यदि उन्होंने संतुलन और विश्वसनीयता को प्राथमिकता नहीं दी, तो दर्शक हमेशा के लिए उनसे दूर हो जाएंगे।
कौन पक्षकार? संस्था बनाम व्यक्तिगत याचिका की कानूनी पड़ताल
जब किसी व्यक्ति के खिलाफ मानहानि होती है, तो वह व्यक्तिगत हैसियत में याचिका दाखिल कर सकता है। लेकिन जब किसी संस्था (जैसे किसी राजनीतिक पार्टी) पर टिप्पणी की जाती है, तो सामान्यतः संस्था को ही याचिकाकर्ता बनना होता है। यदि संस्था याचिका दाखिल करती है, तो उसका अधिकृत प्रतिनिधि (संस्था द्वारा नामित व्यक्ति) ही दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करता है और अदालत में शपथपत्र (Affidavit) दाखिल करता है।
इस मामले में टिप्पणी कांग्रेस पार्टी पर केंद्रित थी, फिर भी पवन खेड़ा ने इसे व्यक्तिगत हैसियत में याचिका के रूप में दाखिल किया, जिसे कोर्ट ने कानूनी दृष्टि से संशोधन योग्य मानते हुए केवल यह स्पष्ट किया कि उक्त बयान व्यक्तिगत न होते हुए पार्टी को संबोधित था, और इसी कारण याचिका में संशोधन कर पार्टी को पक्षकार बनाने का आदेश दिया।
दिल्ली हाईकोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि केस की “memo of parties” यानी पक्षकारों की सूची में संशोधन अनिवार्य है और उसमें कांग्रेस पार्टी का आधिकारिक प्रतिनिधित्व दर्ज होना चाहिए। अदालत ने कहा कि अगली सुनवाई तभी निर्धारित की जाएगी जब संशोधित याचिका विधिवत दाखिल की जाएगी। पवन खेड़ा की कानूनी टीम ने इस आदेश पर सहमति जताते हुए कहा कि वे आवश्यक संशोधन प्रस्तुत करेंगे। यह प्रक्रिया दर्शाती है कि संस्थागत बनाम व्यक्तिगत याचिकाओं में पक्षकारों की सही पहचान और उनकी आधिकारिक स्थिति का कानूनी महत्व कितना व्यापक और निर्णायक होता है।
कानूनी चाल या राजनीतिक मोर्चा? पर्दे के पीछे की रणनीति
जब कोई राष्ट्रीय स्तर की पार्टी — विशेषकर कांग्रेस जैसी राजनीतिक और कानूनी दृष्टि से परिपक्व संस्था — अदालत का दरवाज़ा खटखटाती है, तो यह मान लिया जाता है कि हर कदम गहन कानूनी सलाह और रणनीतिक विमर्श के बाद ही उठाया जाता है। कांग्रेस जैसी पार्टी के पास अनुभवी वरिष्ठ वकीलों की पूरी टीम, एक संगठित लीगल सेल और मामलों का कानूनी परीक्षण करने वाला मजबूत तंत्र है। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है: क्या पवन खेड़ा द्वारा यह याचिका व्यक्तिगत हैसियत में दाखिल करना केवल एक साधारण कानूनी चूक थी, या फिर एक सोची-समझी कूटनीतिक चाल?
कई विश्लेषक मानते हैं कि यह कदम एक ‘लकड़ी की तलवार’ दिखाकर भ्रमित कर डराना या फिर वार करने की तर्ज पर हो सकता है — यानी हमला तो किया जाए, लेकिन बिना वास्तविक चोट पहुँचाए केवल संदेश देने और दबाव बनाने के लिए। यदि याचिका सीधे कांग्रेस पार्टी की ओर से दाखिल होती, तो पार्टी को अदालत में आकर कड़े कानूनी परीक्षण, प्रतिपक्ष की जिरह और विस्तृत जवाबदेही का सामना करना पड़ता। व्यक्तिगत याचिका दाखिल कर पवन खेड़ा ने एक ओर अर्णब गोस्वामी की कथित टिप्पणी पर सार्वजनिक विरोध दर्ज कराया, वहीं दूसरी ओर पार्टी को अदालती कठोर सवाल-जवाब और क्रॉस-एग्जामिनेशन से दूर रखा।
हालांकि, दिल्ली हाईकोर्ट ने इस रणनीति को आंशिक रूप से रोकते हुए स्पष्ट कर दिया कि याचिका में पार्टी को पक्षकार बनाना अनिवार्य होगा। यह घटनाक्रम बताता है कि अदालतें केवल न्याय वितरण का मंच नहीं, बल्कि राजनीतिक संदेशों और जनभावनाओं को प्रभावित करने का माध्यम भी बनती जा रही हैं।
इस संदर्भ में एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इससे पहले भी पवन खेड़ा ने मई 2022 में राजस्थान में अर्णब गोस्वामी के खिलाफ एक मामला दर्ज कराया था, जिसमें धार्मिक समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाने के आरोप लगे थे। इस पृष्ठभूमि को देखते हुए यह अनुमान लगाना गलत नहीं होगा कि मौजूदा मानहानि मुकदमा केवल एक कानूनी लड़ाई भर नहीं, बल्कि एक लंबे समय से चली आ रही व्यक्तिगत और राजनीतिक खींचतान का हिस्सा भी हो सकता है।
यह भी महत्वपूर्ण है कि इस तरह की रणनीतिक चाल की पूरी तरह पुष्टि नहीं की जा सकती, लेकिन इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि पार्टी ने जान-बूझकर खुद को प्रत्यक्ष कानूनी मोर्चे पर लाने के बजाय व्यक्तिगत याचिका का विकल्प चुना। कांग्रेस जैसी कानूनी रूप से सतर्क संस्था से यह उम्मीद करना कि उसने बिना गहन कानूनी समीक्षा के यह कदम उठाया होगा, एक तरह का भ्रम ही माना जा सकता है।
इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर यह रेखांकित किया है कि कैसे अदालतें कानून, राजनीति और जनसंचार — तीनों के बीच एक जटिल और संवेदनशील त्रिकोण बनती जा रही हैं। यहां सिर्फ न्याय का सवाल नहीं, बल्कि राजनीतिक छवि, जनभावना और मीडिया नैरेटिव की जंग भी समानांतर चलती दिखाई देती है।
पत्रकारिता, राजनीति और न्याय का त्रिकोण
अर्णब गोस्वामी की पत्रकारिता शैली पर नजर डालें तो यह स्पष्ट होता है कि वह पारंपरिक पत्रकारिता के उस आदर्श से अलग है, जिसमें सत्य, निष्पक्षता और जनहित को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। समर्थकों की नजर में वह राष्ट्रवादी विमर्श के एक सशक्त प्रतिनिधि हैं, जबकि आलोचकों के अनुसार वे ‘मीडिया ट्रायल’ और ‘ध्रुवीकरण’ की राजनीति के प्रतीक बन चुके हैं। आलोचकों का तर्क है कि उनकी शैली ने संवाद और गहन बहस की जगह शोर और उत्तेजना को प्राथमिकता दी, जिससे पत्रकारिता का उद्देश्य ही बदलने लगा।
यह मामला केवल अर्णब गोस्वामी और पवन खेड़ा के बीच की कानूनी लड़ाई भर नहीं है। यह घटना पत्रकारिता की स्वतंत्रता, राजनीतिक रणनीति और न्यायिक प्रक्रिया — इन तीनों के बीच जटिल और संवेदनशील रिश्तों को उजागर करती है। प्रेस की आज़ादी और व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के अधिकार के बीच संतुलन बनाए रखना शायद लोकतंत्र के सबसे बड़े परीक्षणों में से एक है।
लोकतंत्र में पत्रकारिता का असली धर्म सत्ता से सवाल करना, जनता के सामने तथ्य लाना और जनहित को सर्वोपरि रखना होता है, न कि पक्षपात और ध्रुवीकरण के एजेंडे को बढ़ावा देना। पवन खेड़ा की यह याचिका भले ही कानूनी दृष्टि से कितनी भी विवादास्पद या चुनौतीपूर्ण हो, लेकिन इसने समाज और न्यायपालिका के बीच एक नई और महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया है — एक ऐसी बहस जो प्रेस की जिम्मेदारी, अभिव्यक्ति की सीमाएँ और राजनीतिक हितों के समीकरण — इन सभी पर नए सिरे से प्रकाश डालती है।
यह पूरा घटनाक्रम दर्शाता है कि आज पत्रकारिता, राजनीति और न्याय — तीनों एक जटिल त्रिकोण में बंधे हुए हैं, जहाँ हर पक्ष दूसरे को प्रभावित करता है। यही इस प्रकरण की असली गहराई और इससे जुड़ी सामाजिक चेतना का प्रतीक भी है।