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झूठ पर अदालत का प्रहार, सच पर ’खुली किताब’ का पहरा

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Written by
–नीलेश कटारिया

पत्रकारिता का धर्म केवल शब्दों में नहीं, उसकी नीयत में बसता है। कलम की ताकत किसी भी तलवार से अधिक होती है, पर जब यह ताकत झूठ और सनसनी के नाम पर बिकने लगे, तो समाज की आत्मा घायल हो जाती है और लोकतंत्र की जड़ें हिलने लगती हैं।

जम्मू-कश्मीर के पुंछ में उप-न्यायाधीश एवं विशेष मोबाइल मजिस्ट्रेट शफीक अहमद द्वारा दिया गया हालिया आदेश हमें इसी सच्चाई की याद दिलाता है। ज़ी न्यूज़ और न्यूज़18 इंडिया के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का आदेश देकर अदालत ने साफ संदेश दिया है कि पत्रकारिता को अपनी मर्यादा और जिम्मेदारी नहीं भूलनी चाहिए।


निर्दोष पर लगा झूठा आतंकवादी ठप्पा

7 मई को पाकिस्तानी गोलाबारी में पुंछ के जामिया जिया-उल-उलूम में धार्मिक शिक्षक कारी मोहम्मद इकबाल की मृत्यु हो गई। वे एक धार्मिक शिक्षक और पाकिस्तानी गोलाबारी में मारे गए एक नागरिक थे। अदालत के रिकॉर्ड के अनुसार, वह एक निर्दोष नागरिक के रूप में मारे गए।

लेकिन ऑपरेशन सिंदूर की लाइव कवरेज के दौरान ज़ी न्यूज़ और न्यूज़18 इंडिया ने, बिना किसी आधिकारिक पुष्टि या साक्ष्य के, कारी इकबाल को “पाकिस्तानी आतंकवादी”, “लश्कर-ए-तैयबा का कमांडर” और “पुलवामा हमले का साजिशकर्ता” बता दिया। इस रिपोर्टिंग में उनका नाम और तस्वीर भी प्रसारित की गई, जिससे न केवल उनकी छवि धूमिल हुई, बल्कि परिवार और समुदाय को गहरा आघात पहुँचा।


अदालत की टिप्पणी: अभिव्यक्ति की आज़ादी की सीमाएँ

पुंछ के उप-न्यायाधीश एवं विशेष मोबाइल मजिस्ट्रेट शफीक अहमद ने स्पष्ट कहा कि बिना सत्यापन के किसी निर्दोष को आतंकवादी करार देना पत्रकारिता का घोर दुरुपयोग है। इस तरह की झूठी रिपोर्टिंग से मृतक और उनके परिवार की प्रतिष्ठा को अपूरणीय क्षति पहुँची और यह समाज में अविश्वास तथा वैमनस्य फैलाने का भी माध्यम बन सकती है।

कोर्ट ने यह भी दोहराया कि प्रेस की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत सुरक्षित है, परंतु यह अनुच्छेद 19(2) के तहत मानहानि, सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के आधार पर उचित प्रतिबंधों के अधीन है।


कानून का फैसला, झूठ की हार

अदालत ने स्पष्ट किया कि यह कृत्य मानहानि, सार्वजनिक शरारत और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के अपराध की श्रेणी में आता है। ये अपराध भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 353(2), 356 और 196 तथा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 66 के तहत दंडनीय हैं।

अदालत ने यह भी कहा कि माफ़ी मांगने के बावजूद प्रसारण से जो नुकसान हुआ है, उसे माफ़ी से नहीं मिटाया जा सकता। इसलिए, थाना प्रभारी को सात दिनों के भीतर एफआईआर दर्ज करने और निष्पक्ष, समयबद्ध जांच कर रिपोर्ट प्रस्तुत करने का आदेश दिया गया। आदेश की एक प्रति एसएसपी पुंछ को भी भेजी गई।


पत्रकारिता का धर्म: सच के प्रति निष्ठा

पत्रकारिता का असली धर्म है — सच बोलना और समाज को जागरूक करना।
सत्य के प्रति निष्ठा, जिम्मेदारी और संवेदनशीलता — यही तीन स्तंभ पत्रकारिता को जीवित और विश्वसनीय रखते हैं। हर शब्द समाज में गहरा प्रभाव डालता है, और अगर शब्दों की यह ताकत ग़लत दिशा में जाती है, तो वह किसी निर्दोष को अपराधी बना सकती है या पूरे समाज में वैमनस्य फैला सकती है।

जब पत्रकारिता इन मूलभूत सिद्धांतों से हट जाती है, तो वह केवल व्यवसाय बनकर रह जाती है, लोकतंत्र की रक्षा करने वाला प्रहरी नहीं।


’खुली किताब’: पत्रकारिता का वह दीपक, जो अंधेरे में भी रास्ता दिखाए

हमारा मकसद महज खबरें पहुँचाना नहीं है — हमारा संकल्प है कि पत्रकारिता को समाज की अंतरात्मा और विवेक का आईना बनाया जाए। हर रिपोर्ट हमारे लिए केवल एक कहानी नहीं, बल्कि एक सामाजिक उत्तरदायित्व है। हर शब्द में संवेदनशीलता की चमक होनी चाहिए, हर विश्लेषण में भविष्य की दिशा का संकेत, और हर आलोचना में सुधार की संभावना का बीज होना चाहिए।

हम मानते हैं कि पत्रकारिता सिर्फ घटनाओं की गिनती नहीं, बल्कि घटनाओं के पीछे के सच की पड़ताल है। यही वजह है कि खुली किताब में हम कभी भी अधूरी या अपुष्ट जानकारी देने का साहस नहीं करते। हमारे लिए हर रिपोर्ट, संविधान और नागरिक के बीच विश्वास का पुल है — न कि एक और दीवार।

हम घटनाओं के ‘क्या’ तक ही नहीं रुकते, बल्कि ‘क्यों’ और ‘कैसे’ तक पहुँचते हैं। हमारी दृष्टि का अंतिम पड़ाव यह होता है कि ‘अब क्या होना चाहिए’। यही दृष्टि पत्रकारिता को महज सूचना से ऊपर उठाकर जागरूकता और परिवर्तन का औजार बनाती है।

हम मानते हैं कि सच्ची पत्रकारिता वह है, जो पाठक को केवल तथ्यों तक सीमित न रखे, बल्कि उसे सोचने, प्रश्न करने और न्याय के पक्ष में खड़े होने की हिम्मत दे। ’खुली किताब’ की हर पंक्ति, हर विश्लेषण, हर आवाज़ — समाज के भीतर छिपी अंतरात्मा को झकझोरने का प्रयास है।

हम उन्हीं सच्चाइयों को सामने लाने का प्रण लेते हैं, जिन्हें अक्सर सुविधाजनक चुप्पियों में दबा दिया जाता है। हम उन सवालों को उठाते हैं, जिनसे लोग कतराते हैं। हम वही आवाज़ हैं, जो न सत्ता से डरती है, न बाजार से बिकती है, और न ही भीड़ में गुम होती है।

यह हमारा वादा नहीं, बल्कि हमारी हर रिपोर्ट का जीवित प्रमाण है। ’खुली किताब’ सिर्फ एक मंच नहीं, बल्कि एक निरंतर चलने वाला आंदोलन है — सच्चाई के लिए, समाज के लिए, आपके लिए।


सच की राह, भरोसे का वचन

पुंछ अदालत का यह आदेश पूरे देश में एक मिसाल के रूप में स्थापित होगा। यह आदेश साफ़ संदेश देता है कि पत्रकारिता को सच्चाई की कीमत पर कोई भी आज़ादी स्थायी रूप से नहीं दी जा सकती। जब पत्रकारिता अपने धर्म और जिम्मेदारी से भटक जाती है, तो कानून उसे उसकी सीमाएँ याद दिलाने में कभी पीछे नहीं हटता।

’खुली किताब’ इसी विश्वास और सिद्धांत के साथ आगे बढ़ रहा है। हमारा संकल्प है कि हम सत्य की रक्षा करेंगे, समाज की सेवा करेंगे और हर खबर के माध्यम से भरोसे का निर्माण करेंगे।

’खुली किताब’ मानता है कि खबरें सिर्फ सूचना का माध्यम नहीं होतीं, बल्कि समाज की आत्मा का आईना होती हैं — और इसी सोच के साथ हम हर शब्द, हर रिपोर्ट और हर विश्लेषण तैयार करते हैं।

 

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