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लोहे के पर्दे के पीछे का खेल: गुजरात हाईकोर्ट फाइल गायब कांड की परतें कब खुलेंगी?

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–नीलेश कटारिया

कड़वा-मीठा सच

अमदाबाद, 22 फरवरी। गुजरात हाईकोर्ट में चल रहा पाटन कोर्ट फाइल गायब कांड अब एक गहरी न्यायिक और प्रशासनिक जांच का केंद्र बन चुका है। इस मामले की बीते 21फरवरी 2025 को हुई असफल सुनवाई में याचिकाकर्ता के एडवोकेट ने अदालत से मामले को स्थगित (Adjourn) करने का अनुरोध किया। जस्टिस दिव्येश ए. जोशी ने इस अनुरोध को स्वीकार करते हुए अगली सुनवाई की तारीख 11 अप्रैल 2025 निर्धारित की है। यह मामला उस समय प्रकाश में आया जब क्रिमिनल केस नंबर 75/2010 की फाइल रहस्यमय तरीके से गायब हो गई। यह मामला राधनपुर कस्बे से संबंधित था, लेकिन केस पाटन कोर्ट में दर्ज हुआ था, और वहीं से यह फाइल गायब हो गई।

इस मामले पर जस्टिस संदीप एन. भट्ट ने सख्त आदेश पारित किए और अदालत प्रशासन से स्पष्ट रिपोर्ट पेश करने का निर्देश दिया। हालांकि, अचानक उनके रोस्टर में बदलाव कर दिया गया और केस को जस्टिस दिव्येश ए. जोशी की बेंच को सौंप दिया गया। यह एक प्रशासनिक निर्णय माना गया, लेकिन न्यायिक गलियारों में इस पर चर्चाएँ भी शुरू हो गईं।

जस्टिस संदीप एन. भट्ट द्वारा 13 फरवरी 2025 को पारित आदेश के अनुसार, 21 फरवरी 2025 को अदालत में जांच की अंतिम रिपोर्ट पेश की जानी थी। यह रिपोर्ट अदालत से गायब हुई फाइल की जांच में अब तक की गई कार्रवाई और संबंधित अधिकारियों की जवाबदेही को उजागर कर सकती थी। हालांकि, याचिकाकर्ता के एडवोकेट द्वारा स्थगन (Adjournment) के अनुरोध के कारण यह रिपोर्ट पेश नहीं हो सकी।

इस बाबत Gujarat High Court Advocates’ Association (GHAA) ने इस घटनाक्रम को गंभीरता से लेते हुए 17 फरवरी 2025 को एक आपात बैठक बुलाई। इस बैठक में पूरे मामले की निंदा की गई और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर चिंता व्यक्त करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया। इस प्रस्ताव में अदालत की निष्पक्षता बनाए रखने की आवश्यकता पर बल दिया गया और सभी जिम्मेदार पक्षों से पारदर्शिता सुनिश्चित करने की अपील की गई। इसके साथ ही, सुप्रीम कोर्ट से गुजरात हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश के स्थानांतरण की गुजारिश भी की गई, ताकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहे और अदालत की निष्पक्षता पर जनता का भरोसा बहाल हो सके।

इस सुनवाई में याचिकाकर्ता के एडवोकेट ने अदालत से मामले को स्थगित (Adjourn) करने का अनुरोध किया। जस्टिस दिव्येश ए. जोशी ने इस अनुरोध को स्वीकार करते हुए अगली सुनवाई की तारीख 11 अप्रैल 2025 निर्धारित की। यह कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसमें जज का विवेकाधिकार महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालांकि, अदालत की प्रक्रिया में देरी से जुड़े संभावित कारणों को लेकर न्यायिक गलियारों में चर्चा जारी है।

कोर्ट की प्रक्रिया: सुनवाई स्थगित (Adjourn) करने और जल्दी सुनवाई (Priority Hearing) के नियम

गुजरात हाईकोर्ट में किसी भी मामले की सुनवाई एक तय क्रम (लिस्टिंग) के आधार पर होती है। जब कोर्ट की कार्यवाही शुरू होती है, तो कोर्ट मास्टर सभी मामलों के क्रम संख्या (Case Number) पुकारते हैं। यदि किसी एडवोकेट या पक्षकार को लगता है कि उनके केस की सुनवाई तुरंत होनी चाहिए या किसी कारणवश स्थगित (Adjourn) करनी है, तो इसके लिए कोर्ट में अनुरोध करने का एक तय नियम है।

सुनवाई जल्दी कराने (Priority) की प्रक्रिया कैसे होती है?

  • यदि किसी एडवोकेट को लगता है कि उनका मामला अति आवश्यक है, तो वे अदालत से उस केस को जल्दी सुनने का अनुरोध कर सकते हैं।
  • इसके लिए एडवोकेट को या तो मेंशनिंग सेशन (कोर्ट के शुरू होते ही) में या ऑनलाइन सिस्टम के माध्यम से अपील करनी होती है।
  • कोर्ट यह अनुरोध स्वीकार करेगा या नहीं, यह पूरी तरह से जज के विवेक (Discretion) पर निर्भर करता है।

सुनवाई स्थगित (Adjourn) करने का क्या नियम है?

  • यदि किसी पक्षकार या एडवोकेट को किसी कारण से सुनवाई के लिए अधिक समय चाहिए, तो वह अदालत से केस को स्थगित करने (अगली तारीख देने) की मांग कर सकता है।
  • यह मांग तभी मानी जाती है, जब इसके पीछे पर्याप्त कारण (Valid Reason) हो, जैसे स्वास्थ्य संबंधी समस्या, दस्तावेजों की कमी, या कोई अन्य जरूरी कारण।
  • कानूनी नियमों के अनुसार, किसी भी पक्ष को अधिकतम तीन बार ही स्थगन की मांग करने की अनुमति दी जाती है, जब तक कि कोई असाधारण परिस्थिति न हो।

फैसला किसके हाथ में होता है?

  • चाहे मामला जल्दी सुना जाए या स्थगित किया जाए, यह फैसला पूरी तरह से कोर्ट के जज के विवेकाधिकार पर निर्भर करता है।
  • जज यह सुनिश्चित करते हैं कि इस तरह के अनुरोधों से अदालत की प्रक्रिया में बिना कारण देरी न हो।

लोहे के पर्दे के पीछे का खेल

न्यायिक प्रक्रिया की जटिलताओं को देखते हुए यह संकेत मिलते हैं कि यह मामला अब सिर्फ अदालत से गायब हुई फाइलों तक सीमित नहीं रहा। ऐसा माना जा रहा था कि 21 फरवरी 2025 की सुनवाई में मुख्य साजिशकर्ता की भूमिका स्पष्ट रूप से उजागर हो सकती थी। कुछ विश्लेषकों का यह भी मानना है कि अदालत की प्रक्रिया के माध्यम से अंतिम निर्णय तक पहुँचने की गति धीमी करने का प्रयास किया जा सकता है, जिससे इस प्रकरण के पीछे छिपे वास्तविक कारण और जिम्मेदार पक्षों का पर्दाफाश रुक सके।

हालांकि, यह स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि यह सभी संभावनाएँ न्यायालय की निष्पक्षता या उसकी साख पर कोई प्रश्न नहीं उठातीं। अदालत की प्रक्रियाएँ पूरी पारदर्शिता और संवैधानिक दायरे में ही संचालित हो रही हैं।

Gujarat High Court Advocates’ Association (GHAA) के अध्यक्ष बृजेश त्रिवेदी और याचिकाकर्ता के एडवोकेट से इस मामले में प्रतिक्रिया प्राप्त करने के प्रयास किए गए, लेकिन संपर्क नहीं हो सका। जैसे ही उनकी प्रतिक्रिया मिलेगी, उसे खुली किताब में प्रमुखता से प्रकाशित किया जाएगा।


“खुली किताब” की संपादकीय टीम इस मामले की गहराई से निगरानी में लगी हुई है। और इस घटनाक्रम के सभी अपडेट पूरी निष्पक्षता से प्रकाशित किए जाते रहेंगे।

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हालांकि, यह ध्यान रखना आवश्यक है कि स्वचालित अनुवाद प्रक्रिया में कभी-कभी मूल अर्थ में परिवर्तन या भ्रम उत्पन्न हो सकता है। इसलिए, किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पहले मूल हिंदी भाषा में लिखी गई रिपोर्ट को ही आधार बनाना सबसे उचित रहेगा।

‘खुली किताब’ यह सुनिश्चित करता है कि सभी खबरें स्पष्ट, तथ्यपूर्ण और निष्पक्ष तरीके से प्रस्तुत की जाएँ। पाठकों से निवेदन है कि किसी भी महत्वपूर्ण संदर्भ या अर्थ की सही व्याख्या के लिए मूल रिपोर्ट को ही प्राथमिकता दें।

क्या आपको लगता है कि तकनीकी चेतावनियों को बार-बार नजरअंदाज करना प्रशासनिक लापरवाही का प्रमाण है?

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