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जब कहानियाँ चुप्पियों को तोड़ने लगीं..

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Written by
–राकेश कटारिया

कहानियों ने बोलना शुरू किया…


जब समाज की अनकही कहानियाँ चीख़ना चाहती हैं, लेकिन शब्द नहीं पातीं — तब कोई लेखिका अपनी आत्मा से उन्हें उठाती है और काग़ज़ पर रख देती है। वैदेही कोठारी की “गुनगुनी धूप सी कहानियां” ठीक वैसी ही एक दस्तावेज़ है — जो चुप्पियों को बोलने की जगह देती है।


1 जून 2025 रविवार की शाम रतलाम प्रेस क्लब में कुछ ऐसा घटित हुआ जिसे सिर्फ कार्यक्रम नहीं कहा जा सकता — यह वह पल था जब शब्द, संवेदना बन मंच पर उतरे और समाज की गूंगी परछाइयों को आवाज़ मिली। मैं, उस क्षण का साक्षी था, जहाँ एक-एक कहानी एक सांस की तरह मंच पर उतर रही थी। लेखिका वैदेही कोठारी  के पहले कहानी संग्रह “गुनगुनी धूप सी कहानियां” का विमोचन सिर्फ किसी किताब का लोकार्पण नहीं था — यह उस भीतरी उजाले का सार्वजनिक स्वागत था, जो वर्षों तक भीतर पकता रहा।

यह आयोजन उन संवेदनाओं का सार्वजनिक स्वीकृति था जिन्हें हम अकसर नजरअंदाज़ करते हैं — एक सफाईकर्मी की पीड़ा, एक गुमनाम महिला की खामोशी, एक विकलांग बच्चे का संघर्ष, और नारी आत्मा की टूटती परछाइयाँ।

वैदेही कोठारी  ने पत्रकारिता की कठोर पगडंडियों से गुजरते हुए यह कहानियाँ अर्जित की हैं, जिन्हें अब उन्होंने कथा-संग्रह के रूप में समाज को लौटाया है। उनका लेखन एक विमर्श है — भावुक नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण। यह संग्रह न तो केवल भावनाओं में बहता है, न ही केवल आदर्श गढ़ता है; यह समाज का वह सच है, जो हमें बार-बार टालते रहने की आदत हो चुकी है।


आत्मा से उपजी कहानियाँ, जो चुप्पियों में भी बोलती हैं

वैदेही कोठारी  23 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। उनके शब्दों की धार सत्ता से टकराई है, और उनकी स्याही ने उपेक्षित वर्गों की व्यथा को उकेरा है। बाल कल्याण समिति की सदस्य के रूप में उनका सामाजिक अनुभव, उनकी कहानियों को महज़ कल्पना नहीं रहने देता — वह उन्हें साक्षात जीवन बना देता है।

“गुनगुनी धूप सी कहानियां” — जैसे किसी सर्द दिन की वह धूप है, जो न तपती है, न बुझती है, बस धीरे-धीरे त्वचा में उतरती है और आत्मा को छूती है।


जब मंच नहीं, मन बोल रहा था

मंच पर केवल शब्द नहीं बोले जा रहे थे, मंच आत्मा से बोल रहा था। हर वक्ता, हर अतिथि, हर दृष्टि — जैसे कह रही हो कि यह महज़ साहित्यिक आयोजन नहीं, एक भावनात्मक उद्घाटन है। मैं, यह नहीं कह रहा कि श्रोतागण मौन थे, लेकिन उस शाम मौन भी बोल रहा था। वैदेही कोठारी ने जो कहानियाँ रची हैं, वे लिखी नहीं गईं — वे जानी गई हैं, जी गई हैं।


मंच पर शब्दों की गरिमा और वक्तव्य की ऊष्मा

मुख्य अतिथि सुश्री ऊषा ठाकुर, पूर्व मंत्री और महू विधायक, ने कहा — “रचनात्मक लेखन केवल मनोरंजन नहीं, वह समाज की वैचारिक चेतना का आह्वान होता है। वैदेही कोठारी की कहानियाँ स्त्री के भीतर के स्वर, आत्मसंघर्ष और सामाजिक प्रतिबद्धता को सजीव करती हैं। यह पुस्तक एक ऐसा साहित्यिक दर्पण है, जो हमारे मूल्यों की पुनर्परिभाषा करती है।” उन्होंने लव जिहाद और हवन जैसे मुद्दों पर भी मुखर होकर कहा — “संस्कारयुक्त परिवार ही राष्ट्र की नींव हैं।”


सृजन के तीन स्वर: शब्द, रंग और विचार

बाबा सत्यनारायण मौर्य — अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चिंतक, कवि और चित्रकार — जब मंच से बोले तो जैसे शब्द भी रचने लगे चित्र। उन्होंने मालवी मिश्रित शैली में कहा —“आज भावनाएँ तकनीक के पीछे छिप गई हैं। वैदेही जैसे लोग समाज को उसकी आत्मा की याद दिला रहे हैं। सरलता, जड़ों से जुड़ाव और जीवन की दिशा — यही सच्चे साहित्य की आत्मा है।”


भाजपा के रतलाम जिला प्रभारी प्रदीप पाण्डेय  का वक्तव्य लेखनी की भूमिका पर केंद्रित था — “एक लेखक वह कर सकता है जो मंत्री नहीं कर सकता — वह चेतना जगा सकता है। यह किताब वैदेही कोठारी की संघर्षयात्रा का साहित्यिक दस्तावेज़ है। इसमें नारी का अंतरद्वंद्व है, सामाजिक पीड़ा है और परिवर्तन की संभावनाएँ भी। लेखन वह दीप है जो किसी भी व्यवस्था की अंधेरी गलियों में उजाला कर सकता है।”


शब्दों की समीक्षा में संवेदना की आवाज़

समारोह की अध्यक्षता कर रही शिक्षाविद् डॉ. प्रवीणा दवेसर  ने समीक्षा करते हुए कहा, यह पुस्तक केवल कहानियों का संकलन नहीं, बल्कि भीतर बहती उन ध्वनियों का रूप है जिन्हें समाज प्रायः मौन कर देता है। ‘नंदिनी‘ जैसी कहानी स्त्री अस्मिता की आवाज़ है। हर कहानी में एक सन्नाटा है, जो उसकी सबसे तीव्र अभिव्यक्ति बन जाता है।

शिक्षिका एवं साहित्यकार श्वेता नागर ने स्वागत भाषण में लेखिका के साहित्यिक अवदान को रेखांकित करते हुए कहा — “वैदेही की लेखनी केवल अनुभव नहीं, संवेदना की भाषा बोलती है। उनकी कहानियाँ पाठकों के अंतर्मन में वह गूंज छोड़ती हैं, जो समय के साथ गहराती जाती है।”


जब मंच मौन हुआ, और लेखिका बोलीं

लेखिका वैदेही कोठारी  मंच पर आईं, तो एक गहरा मौन छा गया — जैसे शब्द जन्म लेने को तैयार हों। उन्होंने कहा — “यह केवल मेरा नहीं, हर उस स्त्री का मंच है जो कभी बोल नहीं पाई, हर उस बालक का जो स्कूल की बजाय भीख माँगने को मजबूर है, हर उस श्रमिक का जो सफाई तो करता है, पर सम्मान से वंचित है। ये कहानियाँ मैंने नहीं गढ़ीं — उन्हें देखा है, सुना है, महसूस किया है — बस शब्दों में ढाल दिया हैं।”


आयोजन की गरिमा और साहित्यिक संवाद

कार्यक्रम का संचालन अदिति मिश्रा  ने सहजता और गरिमा के साथ किया। दीप प्रज्वलन और सरस्वती वंदना के साथ आरंभ हुआ यह आयोजन, साहित्यिक संवाद और समाज-सापेक्ष दृष्टिकोण का केंद्र बन गया।

स्वागत की सौम्य परिधि में लेखिका के सृजन को नमन करने पहुँचे — खुशबू जांगलवा, संदीप निरखीवाले (दैनिक स्वदेश, इंदौर), तुमुल सिन्हा (नेपथ्य पत्रिका, भोपाल), आशुतोष नवाल (गुरु एक्सप्रेस, मंदसौर), अमित राव (देवास) और समाज सेवी गोविंद काकाणी (रतलाम)।

उपस्थिति से समारोह को गरिमा मिली — लेखिका इंदु सिन्हा, प्रेस क्लब अध्यक्ष मुकेश गोस्वामी, लेखक एवं साहित्यकार आशीष दशोत्तर, डॉ. प्रदीप सिंह राव, और पत्रकारिता के तेजस्वी प्रतिनिधि — शरद जोशी, ओम त्रिवेदी, सुरेन्द्र छाजेड़, तुषार कोठारी, नीलेश कटारिया, गोविंद उपाध्याय, आरिफ कुरैशी, प्रियेश कोठारी, हेमंत भट्ट, उदित अग्रवाल तथा किशोर सिलावट। इन सभी की सृजनशील उपस्थिति ने इस संध्या को एक विचारोत्तेजक संवाद में बदल दिया — जहाँ शब्द, संवेदना और सृजन एक ही ऊर्जा में समवेत हो उठे।


’खुली किताब’ की साहित्यिक दृष्टि


गुनगुनी धूप सी कहानियां” एक संग्रह नहीं, एक यात्रा है — स्त्री संवेदना की, सामाजिक उपेक्षा की, और साहित्य की गरिमा की। वैदेही कोठारी की लेखनी शब्दों को शोर नहीं, संवाद बनाती है — और यही इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता है।

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