
कड़वा–मीठा सच
अहमदाबाद, 13 अप्रैल। गुजरात हाईकोर्ट में विचाराधीन राधनपुर कोर्ट फाइल गायब कांड से जुड़ी याचिका (विशेष आपराधिक आवेदन R/SCR.A/13562/2023) की सुनवाई 11 अप्रैल 2025 को एक बार फिर बिना किसी निर्णायक कार्रवाई के स्थगित रह गई। यह लगातार दूसरी बार है जब यह अत्यंत संवेदनशील मामला तकनीकी कारणों से आगे नहीं बढ़ सका।
इससे पहले भी 21 फरवरी को याचिकाकर्ता के एडवोकेट द्वारा सुनवाई पर स्थगन (adjournment) का अनुरोध किए जाने के बाद अदालत ने अगली सुनवाई के लिए 11 अप्रैल की तारीख निर्धारित की थी। इस दिन यह मामला जस्टिस दिव्येश ए. जोशी की अदालत में सुनवाई हेतु 12वें क्रमांक पर सूचीबद्ध था। लेकिन न्यायाधीश की अनुपस्थिति और किसी वैकल्पिक व्यवस्था में दोनों पक्षों की सक्रियता न होने के चलते यह सुनवाई हो ही नहीं सकी।
गुजरात हाईकोर्ट द्वारा जारी आधिकारिक नोटिस में बताया गया था कि जस्टिस जोशी इस दिन उपलब्ध नहीं रहेंगे, और अर्जेंट मामलों में मेंशनिंग की प्रक्रिया के लिए जस्टिस जे.सी. दोशी की पीठ अधिकृत है।
हालांकि, इस अवसर का उपयोग न तो याचिकाकर्ता के एडवोकेट ने किया और न ही प्रतिवादी पक्ष की ओर से कोई प्रगति रिपोर्ट या स्थिति प्रस्तुत की गई। यह एक ऐसा मामला है जिसमें उच्च न्यायिक प्रशासन और पारदर्शिता जैसे गंभीर प्रश्न शामिल हैं। इसके बावजूद, इस दिन दोनों पक्षों की निष्क्रियता ने इसे न्यायिक प्रक्रिया की तकनीकी जटिलताओं में उलझाकर रख दिया। अब इस याचिका की अगली सुनवाई 22 अप्रैल को निर्धारित की गई है।
यह वही मामला है जिसमें राधनपुर की एक अदालत से 2010 के एक आपराधिक मुकदमे की मूल अदालती केस फाइल रहस्यमय रूप से गायब हो गई थी। इस गंभीर विषय पर 13 फरवरी 2025 को जस्टिस संदीप एन. भट्ट ने एक आदेश पारित किया था। उस आदेश में हाईकोर्ट प्रशासन द्वारा प्रस्तुत एक समग्र रिपोर्ट का संज्ञान लिया गया था, जिसे 12 फरवरी को रजिस्ट्रार जनरल और रजिस्ट्रार जुडिशियल द्वारा प्रस्तुत किया गया था।
इस रिपोर्ट को मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रखा गया था और मुख्य न्यायाधीश ने उस पर टिप्पणी करते हुए कहा था —
“There is no reason to reopen the issues pertaining to the matters which have been filed or where there is an order that no action is required to be taken. The issue is put to rest accordingly.”
“उन मामलों को फिर से खोलने का कोई कारण नहीं है जो पहले ही दाखिल किए जा चुके हैं या जिन पर यह आदेश दिया गया है कि कोई कार्रवाई आवश्यक नहीं है। इसलिए यह मुद्दा समाप्त (put to rest) माना जाता है।”
हालांकि, उपलब्ध पारित आदेश के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि उसमें याचिकाकर्ता की गायब हुई फाइल केस — क्रिमिनल केस नंबर 75/2010 — का कोई विशेष उल्लेख किया गया था।
20 जनवरी 2025 के आदेश में जस्टिस संदीप एन. भट्ट ने यह टिप्पणी की थी कि रजिस्ट्री द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट न तो पूरी तरह स्पष्ट थी, न ही उसमें सभी महत्वपूर्ण पहलुओं को समुचित रूप से रखा गया था। उन्होंने यह इंगित किया कि संबंधित अधिकारी द्वारा दी गई ब्रीफिंग अधूरी थी, जिससे गंभीर विषय न्यायालय के समक्ष समय रहते नहीं आ सके। न्यायालय ने इस स्थिति पर ‘पीड़ा और आघात’ व्यक्त करते हुए कहा कि इस प्रकार की प्रशासनिक चूक न्यायिक प्रणाली की पारदर्शिता और गरिमा पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
13 फरवरी 2025 को जस्टिस संदीप एन. भट्ट द्वारा आदेश पारित किए जाने के ठीक अगले दिन, 14 फरवरी को गुजरात हाईकोर्ट द्वारा जारी आधिकारिक नोटिस में उनका रोस्टर (मामलों के आवंटन की न्यायिक सूची) बदला गया। इसके तहत उन्हें एकल पीठ से हटाकर द्वैतीय पीठ में नियुक्त किया गया, जबकि उनकी पूर्व पीठ — जो विशेष आपराधिक मामलों की सुनवाई करती है — अब जस्टिस दिव्येश ए. जोशी को सौंपी गई। इस बदलाव के परिणामस्वरूप राधनपुर कोर्ट फाइल गायब मामले की सुनवाई अब स्वाभाविक रूप से जस्टिस जोशी की अदालत में स्थानांतरित हो गई। यह परिवर्तन प्रशासनिक प्रक्रिया का हिस्सा था, लेकिन न्यायिक हलकों में इसे जस्टिस भट्ट द्वारा की गई टिप्पणियों के संदर्भ में भी देखा गया।
GHAA की चिंता, समाधान अधूरा
इस घटनाक्रम के तुरंत बाद, गुजरात हाईकोर्ट एडवोकेट्स एसोसिएशन (GHAA) ने 17 फरवरी 2025 को एक आपात बैठक बुलाकर एक प्रस्ताव पारित किया। प्रस्ताव में मुख्य न्यायाधीश के निर्णयों की समीक्षा की मांग की गई और सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया गया कि इस मामले की निष्पक्ष जांच हो। GHAA ने यह भी सिफारिश की कि मुख्य न्यायाधीश का स्थानांतरण किया जाए ताकि हाईकोर्ट की स्वतंत्रता और निष्पक्षता बनी रहे।
अवसर था, पर कोई नहीं बोला
11 अप्रैल को हाईकोर्ट की ओर से जारी आधिकारिक नोटिस में स्पष्ट किया गया था कि यदि किसी एडवोकेट को अर्जेंट आदेश चाहिए, तो वह जस्टिस जे.सी. दोशी के समक्ष मेंशन कर सकता है। इसके बावजूद, न तो याचिकाकर्ता की ओर से और न ही हाईकोर्ट प्रशासन की ओर से मेंशनिंग की गई।
यह याचिका Direction Matter के रूप में सुनवाई के लिए 12वें क्रमांक पर सूचीबद्ध थी, जिसमें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 21, 226, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 और भारतीय दंड संहिता की धाराएं 465, 467, 471, 120B, और 114 शामिल थीं। इससे स्पष्ट है कि मामला गंभीर संवैधानिक और आपराधिक मुद्दों से जुड़ा था और वैकल्पिक बेंच के समक्ष सुनवाई हेतु मेंशन किया जा सकता था।
हालांकि, यदि मामला गंभीर संवैधानिक और आपराधिक मुद्दों के साथ सार्वजनिक महत्व से जुड़ा हो—जैसे अदालत से गायब फाइल कांड—तो उसे समय पर न उठाना न्यायिक सतर्कता की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण चूक मानी जा सकती है।
पहले ही खुल चुके हैं कई सवाल
इस पूरे मामले की गहराई को और स्पष्ट करती है 20 जनवरी 2025 को पारित वह अदालती आदेश, जिसमें पहली बार यह स्वीकार किया गया कि फाइल गायब होना सिर्फ एक लापरवाही नहीं बल्कि दुर्भावना (malafide intent) से प्रेरित कृत्य हो सकता है। इस आदेश में 2019 में सूरत की एक घटना का उल्लेख करते हुए यह भी कहा कि तब 15 केस फाइलें गायब हो गई थीं, और इस गंभीर विषय को ‘under the carpet’ यानी बिना किसी कार्रवाई के दबा दिया गया था — जो कि चिंताजनक है।
प्रक्रिया रुकी, सवाल नहीं
गायब फाइल कांड अब केवल एक याचिका का मामला नहीं रह गया है। यह न्यायिक संस्थानों की कार्यप्रणाली, पारदर्शिता और जवाबदेही से जुड़ा प्रश्न बन चुका है। 11 अप्रैल को इस मामले में सुनवाई के मौके का यूँ चला जाना, न केवल संस्थागत निष्क्रियता की ओर संकेत करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि जब न्यायपालिका खुद पर उठते सवालों का सामना कर रही हो, तब प्रक्रिया की प्रत्येक कड़ी में सतर्कता और सक्रियता अनिवार्य हो जाती है।