
अनुशासन बनाम उदारता का संघर्ष
क्या एक गार्ड की खांसी-जुकाम की दवा पीने की सफाई उसे ड्यूटी के दौरान शराब की गंध से मुक्त कर सकती है? क्या मेडिकल रिपोर्ट में लिखा “शराब की गंध थी, लेकिन नशे में नहीं था” उसे निर्दोष साबित करता है? मध्यप्रदेश हाई कोर्ट की ग्वालियर पीठ ने इस पर जो निर्णय दिया, वह अनुशासन, जवाबदेही और न्यायिक विवेक की मिसाल है। अदालत ने इस गार्ड को ‘अनिवार्य सेवानिवृत्ति’ की सजा सुनाई—एक ऐसी सजा जो सरकारी सेवा में अनुशासनहीनता के प्रति ‘शून्य सहिष्णुता’ (Zero Tolerance) की नीति को दोहराती है।
घटना की पृष्ठभूमि: जब ड्यूटी पर पकड़ा गया था जवान
मामला वर्ष 2007 का है। आरक्षक अशोक कुमार त्रिपाठी, उस समय ग्वालियर में एक हाई कोर्ट न्यायाधीश के सरकारी बंगले नंबर 16 पर सुरक्षा गार्ड के रूप में तैनात थे। सुबह 6 बजे जब संबंधित न्यायाधीश ने उन्हें सोते हुए पाया, तो उनके मुंह से शराब की गंध आ रही थी। तत्काल मेडिकल जांच करवाई गई, जिसमें डॉक्टर ने पुष्टि की कि सांसों में शराब की गंध है और जवान ने शराब का सेवन किया है, हालांकि वह नशे की स्थिति में नहीं था।
विवाद: शराब या सिरप?
अशोक त्रिपाठी ने आरोपों से इनकार करते हुए दावा किया कि वे बीमार थे और उन्होंने खांसी की दवा पी थी, जिसमें संभवतः शराब रही होगी। उन्होंने यह भी कहा कि 3 से 6 बजे के बीच शराब पीना असंभव है और यह कि मेडिकल रिपोर्ट में ‘liquor’ नहीं लिखा, बल्कि केवल ‘alcohol’ का जिक्र है।
विभागीय जांच और निष्कर्ष
विभागीय जांच में डॉक्टर ए.के. सक्सेना का बयान निर्णायक रहा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा कि जवान की सांसों में शराब की गंध थी और वह पूरी तरह होश में था। जांच अधिकारी ने पाया कि यह आचरण ‘मध्यप्रदेश सिविल सेवा आचरण नियम 1969’ के नियम 3 का उल्लंघन है। इसके आधार पर त्रिपाठी को अनिवार्य सेवानिवृत्ति की सजा दी गई।
न्यायिक विवेचना: सीमित दखल और संतुलन का पाठ
अशोक त्रिपाठी ने इस निर्णय को हाई कोर्ट में चुनौती दी, लेकिन न्यायमूर्ति जी.एस. आहलूवालिया ने याचिका खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि न्यायालय विभागीय जांच के तथ्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता जब तक कि वे पूरी तरह साक्ष्यविहीन या ‘perverse’ न हों। कोर्ट ने कहा कि शराब की गंध का पाया जाना ही यह सिद्ध करता है कि शराब का सेवन किया गया था, और इस तरह की स्थिति में गार्ड की सजगता और जिम्मेदारी पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
सजा की उपयुक्तता पर विचार
कोर्ट ने यह भी कहा कि “ड्यूटी पर तैनात एक सुरक्षा कर्मी के लिए शराब का सेवन अत्यंत गंभीर अनुशासनहीनता है,” और इस आधार पर अनिवार्य सेवानिवृत्ति की सजा को उचित माना। कोर्ट ने अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट के अनेक निर्णयों का हवाला देते हुए बताया कि जब तक सजा ‘shockingly disproportionate’ न हो, न्यायालय को उसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
न्यायिक संदेश: शून्य सहिष्णुता और संस्थागत अनुशासन
यह मामला सिर्फ एक जवान की गलती या बचाव नहीं, बल्कि पूरे सरकारी तंत्र में ‘ड्यूटी के समय अनुशासन’ की परिभाषा को दोहराने वाला है। हाई कोर्ट का निर्णय यह स्पष्ट करता है कि न्यायपालिका अपनी सुरक्षा व्यवस्था को लेकर शून्य सहिष्णुता की नीति अपनाती है।
सिस्टम का सजग चेहरा
‘दया’ की याचिका, ‘सिरप’ की सफाई और ‘नशे में नहीं’ की दलीलें अदालत के विवेक के सामने नहीं टिक सकीं। यह फैसला यह दर्शाता है कि ड्यूटी पर कोई लापरवाही—even if partially defensible—अनदेखी नहीं की जाएगी, विशेषकर तब जब बात न्यायपालिका के प्रति उत्तरदायित्व की हो।