अब एडवोकेट की चालाकी नहीं चलेगी! सुप्रीम कोर्ट ने दी अहम कानूनी टिप्पणी

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मुवक्किल के अधिकार सर्वोपरि: सुप्रीम कोर्ट ने एडवोकेट की जवाबदेही तय की!

–सलोनी कटारिया


अहमदाबाद, 10 मार्च। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एडवोकेट और मुवक्किल के बीच मौजूद न्यासीय (fiduciary) संबंध को स्पष्ट करते हुए एक महत्वपूर्ण कानूनी टिप्पणी दी है। इस टिप्पणी के अनुसार, कोई भी एडवोकेट बिना अपने मुवक्किल की स्पष्ट स्वीकृति के अदालत में कोई प्रतिज्ञा (undertaking) नहीं दे सकता। न्यायालय ने कहा कि एडवोकेट सिर्फ मुवक्किल का प्रतिनिधि होता है, लेकिन निर्णय लेने का पूरा अधिकार मुवक्किल का होता है। इस कानूनी व्याख्या का व्यापक प्रभाव हो सकता है, क्योंकि यह उन हजारों लोगों के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत बन सकता है, जो अपने एडवोकेट पर आंख मूंदकर भरोसा करते हैं और कई बार उनके द्वारा दिए गए झूठी प्रतिज्ञाओं की वजह से कानूनी संकट में फंस जाते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के इस कानूनी टिप्पणी का महत्व क्यों है?

भारत में लाखों लोग ऐसे हैं, जिन्हें कानून की जटिलताओं की जानकारी नहीं होती। वे पूरी तरह अपने एडवोकेट पर निर्भर रहते हैं।लेकिन कई बार कुछ एडवोकेट अपने मुवक्किल को धोखे में रखकर ऐसे बयान या प्रतिज्ञा दे देते हैं, जो मुवक्किल के हितों के खिलाफ होते हैं। कई मामलों में विरोधी पक्ष से सांठगांठ करके केस को कमजोर कर दिया जाता है या बिना मुवक्किल की सहमति के अदालत में ऐसे बयान दे दिए जाते हैं, जिनका दूरगामी नुकसान होता है।


क्या था मामला?

इस कानूनी व्याख्या की पृष्ठभूमि में एक विवादित संपत्ति से जुड़ा मामला था, जिसमें 2007 में अपीलकर्ता के एडवोकेट ने अदालत में यह प्रतिज्ञा दी थी कि उनका मुवक्किल संपत्ति का हस्तांतरण नहीं करेगा। इस आधार पर अदालत ने संपत्ति के ट्रांसफर पर रोक लगा दी। लेकिन अपीलकर्ता ने 2011 में संपत्ति बेच दी। जब इस उल्लंघन के खिलाफ शिकायत हुई, तो अपीलकर्ता ने कहा कि उसने अपने एडवोकेट को ऐसी प्रतिज्ञा देने के लिए अधिकृत ही नहीं किया था। मामला हाईकोर्ट गया, जहां उसे अदालत की अवमानना (Contempt of Court) का दोषी पाया गया। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील हुई। लाइव लॉ के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने इस पर महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि कोई भी एडवोकेट मुवक्किल की स्वीकृति के बिना अदालत में कोई प्रतिज्ञा नहीं दे सकता। लेकिन, अपीलकर्ता यह साबित करने में विफल रहा कि 2007 में दिया गया प्रतिज्ञा अनधिकृत थी, इसलिए उसकी अपील खारिज कर दी गई।

यह टिप्पणी क्यों महत्वपूर्ण है?

भारत में हजारों ऐसे मामले देखे गए हैं, जहां एडवोकेट की गलती या चालाकी की वजह से मुवक्किल को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। कई बार एडवोकेट बिना जानकारी दिए समझौते कर लेते हैं, झूठे बयान दे देते हैं, या अदालत में ऐसी प्रतिज्ञा दे देते हैं जो मुवक्किल के खिलाफ जाती है। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी ऐसे मामलों को रोकने के लिए एक मजबूत कानूनी मिसाल बनेगी।


सुप्रीम कोर्ट के पहले के निर्णय: वकीलों की नैतिक जिम्मेदारी और पेशेवर आचरण

भारतीय न्यायपालिका ने पहले भी वकीलों की पेशेवर जिम्मेदारी को लेकर कई सख्त टिप्पणियाँ की हैं। यह उपरोक्त नया निर्णय भी उसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

(1) पी.डी. गुप्ता बनाम राम मूर्ति एवं अन्य (1997):

  • इस मामले में, एडवोकेट पी.डी. गुप्ता पर आरोप था कि उन्होंने अपनी मुवक्किल विद्या वती से एक संपत्ति खरीदी, जबकि वह उस संपत्ति से जुड़े मुकदमों में उनकी ओर से वकालत कर रहे थे।
  • सुप्रीम कोर्ट का फैसला: अदालत ने इसे पेशेवर कदाचार (Professional Misconduct) माना और एडवोकेट को एक वर्ष के लिए निलंबित कर दिया।
  • महत्वपूर्ण टिप्पणी: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एडवोकेट-मुवक्किल संबंध विश्वास पर आधारित होता है, और यदि एडवोकेट इस विश्वास को तोड़ता है, तो यह न केवल मुवक्किल बल्कि पूरे न्याय तंत्र के लिए हानिकारक है।

(2) वी.सी. रंगदुरई बनाम डी. गोपालन एवं अन्य (1978):

  • इस मामले में, एडवोकेट वी.सी. रंगदुरई पर आरोप था कि उन्होंने अपने मुवक्किल के पैसे गलत तरीके से रोके रखे थे, जिससे उनके मुवक्किल को वित्तीय नुकसान हुआ।
  • सुप्रीम कोर्ट का फैसला: अदालत ने इसे गंभीर पेशेवर कदाचार माना और एडवोकेट को दोषी ठहराया।
  • महत्वपूर्ण टिप्पणी: सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि कोई एडवोकेट अपने मुवक्किल की धनराशि का अनुचित उपयोग करता है, तो यह न केवल नैतिक रूप से गलत है बल्कि कानूनी रूप से भी दंडनीय अपराध है।

एडवोकेट-मुवक्किल धोखाधड़ी रोकने के लिए भारतीय कानून में क्या व्यवस्थाएं हैं?

सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले में दी गई सख्त टिप्पणी के बाद यह जानना महत्वपूर्ण हो गया है कि यदि कोई एडवोकेट अपने मुवक्किल के साथ धोखाधड़ी करता है या बिना अनुमति कोई प्रतीज्ञा (undertaking) देता है, तो उसे रोकने के लिए भारतीय कानून में क्या प्रावधान हैं? भारत में बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI), एडवोकेट्स एक्ट, 1961 और भारतीय न्याय संहिता (BNS) में ऐसे कई प्रावधान हैं, जो एडवोकेट के पेशेवर आचरण को नियंत्रित करते हैं और मुवक्किलों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करते हैं।

 

1. बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स (BCI Rules)

बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) ने एडवोकेट्स एक्ट, 1961 के तहत एडवोकेट के लिए आचार संहिता निर्धारित की है, जिससे एडवोकेट के नैतिक और कानूनी दायित्व सुनिश्चित किए जाते हैं।

(A) मुवक्किल की सहमति के बिना कोई प्रतिज्ञा या समझौता नहीं किया जा सकता

  • BCI नियमों के अनुसार, एडवोकेट को अपने मुवक्किल के सर्वोच्च हित की रक्षा करनी होती है।
  • एडवोकेट बिना मुवक्किल की पूर्व स्वीकृति के कोई समझौता या न्यायालय में कोई प्रतिज्ञा (undertaking) नहीं दे सकता।
  • यदि कोई एडवोकेट ऐसा करता है, तो यह पेशेवर कदाचार (Professional Misconduct) माना जाएगा और बार काउंसिल अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सकती है।

(B) मुवक्किल की जानकारी गोपनीय रखना अनिवार्य है

  • एडवोकेट को मुवक्किल से जुड़ी सभी संवेदनशील और कानूनी जानकारी गोपनीय रखनी होगी।
  • यदि कोई एडवोकेट मुवक्किल की गोपनीय जानकारी का दुरुपयोग करता है, तो यह पेशेवर कदाचार (Professional Misconduct) की श्रेणी में आएगा और उस पर अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकती है।

(C) मुवक्किल के पैसे या संपत्ति का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता

  • एडवोकेट मुवक्किल के पैसे, संपत्ति या दस्तावेज़ का दुरुपयोग नहीं कर सकता।
  • यदि कोई एडवोकेट मुवक्किल के पैसे, संपत्ति या दस्तावेज का गलत इस्तेमाल करता है, तो यह गंभीर पेशेवर कदाचार (Professional Misconduct) माना जाएगा और उसका लाइसेंस रद्द किया जा सकता है।
यदि कोई एडवोकेट बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा निर्धारित आचार संहिता का उल्लंघन करता है, तो उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकती है, जिसमें लाइसेंस निलंबन या रद्दीकरण भी शामिल है।

2. एडवोकेट्स एक्ट, 1961 के तहत प्रावधान

बार काउंसिल ऑफ इंडिया और राज्य बार काउंसिल्स को एडवोकेट्स एक्ट, 1961 के तहत एडवोकेट के पेशेवर आचरण की निगरानी और अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का अधिकार प्राप्त है।
  • धारा 35: यदि कोई एडवोकेट पेशेवर कदाचार करता है, तो बार काउंसिल उसे चेतावनी दे सकती है, निलंबित कर सकती है, या उसका लाइसेंस रद्द कर सकती है।
  • धारा 38: यदि कोई पक्ष बार काउंसिल के निर्णय से असंतुष्ट है, तो वह सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकता है।

3. भारतीय न्याय संहिता (BNS) के तहत एडवोकेट-मुवक्किल धोखाधड़ी से संबंधित प्रावधान
यदि कोई एडवोकेट अपने मुवक्किल को धोखा देता है, अदालत में झूठ बोलता है, या कानूनी अनैतिकता करता है, तो उसके खिलाफ भारतीय न्याय संहिता (BNS) के तहत आपराधिक मामला दर्ज किया जा सकता है।

प्रमुख धाराएँ

  • धारा 318: यदि कोई एडवोकेट अपने मुवक्किल को जानबूझकर धोखा देता है, झूठी जानकारी देकर गुमराह करता है, या अपने अधिकार और जिम्मेदारी का गलत उपयोग करता है तो उस पर BNS की धारा 318 की उपधाराओं (1), (2), (3) और (4) के तहत, मामले की प्रवृत्ति अनुसार, आपराधिक धोखाधड़ी की कार्रवाई की जा सकती है । दोष सिद्ध होने पर संबंधित व्यक्ति को 7 साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है।
  • धारा 316: यदि कोई एडवोकेट अपने मुवक्किल की धनराशि, संपत्ति या कानूनी अधिकारों का दुरुपयोग करता है, तो उस पर  BNS की धारा 316 के तहत आपराधिक विश्वासघात (Criminal Breach of Trust) की कार्रवाई हो सकती है। इस धारा के तहत दोषी पाए जाने पर उसे 3 साल तक की कैद, जुर्माना, या दोनों हो सकते हैं।”
  • धारा 61: यदि कोई एडवोकेट किसी अन्य पक्ष (जैसे विपक्षी पक्ष, पुलिस अधिकारी, अदालत कर्मचारी) के साथ मिलकर मुवक्किल के खिलाफ षड्यंत्र रचता है, उसे झूठी कानूनी सलाह देता है, या उसे जानबूझकर किसी कानूनी मामले में फंसाता है, तो उस पर  BNS की धारा 61 के तहत आपराधिक षड्यंत्र (Criminal Conspiracy) की कार्रवाई हो सकती है।

4. न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 और एडवोकेट की जवाबदेही
यदि कोई एडवोकेट जानबूझकर अदालत में गलत बयान देता है, तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करता है, या न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास करता है, तो उसे “न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971” के तहत दोषी माना जा सकता है।

(A). न्यायालय की अवमानना का अर्थ और इसके प्रकार

न्यायालय की अवमानना (Contempt of Court) का अर्थ है न्यायालय की गरिमा और आदेशों की अवहेलना करना। इसे दो प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है:
 प्रत्यक्ष अवमानना (Civil Contempt):
  • यदि कोई एडवोकेट या पक्षकार अदालत के आदेशों, निर्देशों, या फैसलों का पालन नहीं करता, तो यह नागरिक अवमानना (Civil Contempt) के तहत आएगा।
आपराधिक अवमानना (Criminal Contempt):
  • यदि कोई व्यक्ति (जिसमें एडवोकेट भी शामिल है) अदालत में जानबूझकर झूठा बयान देता है, न्यायालय को गुमराह करता है, या न्यायिक प्रक्रिया को बाधित करता है, तो यह आपराधिक अवमानना (Criminal Contempt) माना जाएगा।
(B) यदि एडवोकेट अदालत में जानबूझकर गलत बयान दे तो क्या होगा?
  • कोर्ट को गुमराह करना या झूठी गवाही देना एक गंभीर अपराध है।
  • एडवोकेट के इस कृत्य से न केवल मुवक्किल को हानि हो सकती है, बल्कि यह न्यायिक प्रक्रिया को भी प्रभावित कर सकता है।
  • यदि कोई एडवोकेट जानबूझकर अदालत में झूठा बयान देता है या अपने मुवक्किल को धोखा देता है, तो यह न्यायालय की अवमानना (Criminal Contempt) के तहत अपराध होगा।
(C) एडवोकेट को क्या सजा मिल सकती है?
Contempt of Courts Act, 1971 की धारा 12 के अनुसार, यदि किसी एडवोकेट को न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया जाता है, तो उसे छह महीने तक की सजा या दो हजार रुपये तक का जुर्माना, या दोनों दंड दिए जा सकते हैं।

(D) क्या मुवक्किल न्यायालय की अवमानना के खिलाफ कार्रवाई कर सकता है?

यदि मुवक्किल को लगता है कि उसका एडवोकेट अदालत में झूठा बयान देकर उसे धोखा दे रहा है, तो वह हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर सकता है।
कोर्ट स्वतः संज्ञान (Suo Moto Cognizance) भी ले सकती है और संबंधित एडवोकेट के खिलाफ कार्यवाही कर सकती है।
इसके अलावा, मुवक्किल बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) या राज्य बार काउंसिल में शिकायत दर्ज करा सकता है।

क्या यह महत्वपूर्ण टिप्पणी मुवक्किलों को सुरक्षा देगा?

यह टिप्पणी उन मुवक्किलों के लिए संजीवनी की तरह है, जो अपने एडवोकेट पर आंख मूंदकर भरोसा करते हैं। अब कोई भी एडवोकेट मुवक्किल की सहमति के बिना अदालत में प्रतिज्ञा नहीं दे सकता, जिससे एडवोकेट द्वारा की जाने वाली धोखाधड़ी को रोकने में मदद मिलेगी। मुवक्किलों को भी चाहिए कि वे अपने केस के हर पहलू को समझें, एडवोकेट से स्पष्ट रूप से लिखित सहमति लें, और अगर कोई धोखाधड़ी होती है तो तुरंत शिकायत दर्ज करें।


अगर आपको अपने एडवोकेट से शिकायत हो तो क्या करें?

  • राज्य बार काउंसिल में शिकायत दर्ज करें
  • बार काउंसिल ऑफ इंडिया में अपील करें
  • आपराधिक मामला दर्ज कराएं (BNS के तहत)
  • उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट में न्यायालय की अवमानना याचिका दाखिल करें

निस्संदेह, सुप्रीम कोर्ट की यह महत्वपूर्ण टिप्पणी एडवोकेट-मुवक्किल संबंधों में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए एक मील का पत्थर है, लेकिन यह देखना होगा कि इस फैसले का ज़मीनी असर कितना पड़ता है और क्या यह कानूनी पेशे में सुधार ला सकेगा।


लेखिका एडवोकेट हैं और गुजरात हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करती हैं। यह लेख मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा गया था, जिसका हिंदी अनुवाद ‘खुली किताब’ में प्रकाशित किया जा रहा है। एडवोकेट-मुवक्किल के कानूनी और नैतिक संबंधों की गंभीरता को देखते हुए, यह लेख ‘खुली किताब’ के विशेष अनुरोध पर लिखा गया है।

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