महाकुंभ 2025: जादू का आईना या सच का मुखौटा?

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बात करामात

– नीलेश कटारिया


बहुत समय पहले की बात है। एक धर्मपरायण राजा था, जिसे अपनी न्यायप्रियता पर बड़ा गर्व था। राजा का मानना था कि उसकी दृष्टि अद्भुत थी—वह बिना देखे भी सब देख सकता था, बिना सुने भी सब समझ सकता था।

राजा ने अपने राज्य में एक महान धार्मिक आयोजन किया। इतना भव्य कि उसकी चर्चा सिर्फ धरती पर ही नहीं, बल्कि स्वर्ग में भी होने लगी। राजा के दरबार में इस धार्मिक आयोजन को अतुलनीय उत्सव बताया गया। यह घोषणा की गई कि जो यहां आएगा, वह पुण्य कमाएगा

लेकिन यह राजनीति का युग था, जहाँ हर आयोजन पर सवाल उठाए जा सकते थे। राजा को यह चिंता सताने लगी—”अगर कोई मेरे आयोजन पर सवाल उठाएगा, तो मैं क्या कहूँगा?” राजा को एक ऐसा जवाब चाहिए था, जो हर आलोचक को चुप कर दे, हर प्रश्न को निरर्थक बना दे

आखिरकार, दरबार के विद्वानों ने राजा के लिए एक अद्भुत ‘जादुई आईना’ बनाया—जिसमें हर किसी को वही दिखेगा जो वह देखना चाहता है! दरबार में हर्ष की लहर दौड़ गई। कुछ दरबारी बोले—”महाराज, यह तो अद्भुत खोज है!”
राजा मुस्कुराया और बोला—

“जिसने जो तलाशा, उसे वही मिला!”


महाकुंभ 2025: जादुई आईने का पुनर्जन्म?

अब, इस राज्य के बाहर किसी और साम्राज्य में भी एक राजा था, जिसने लगभग यही जादू दिखाया। वह राजा और कोई नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ थे। उन्होंने विधानसभा में महाकुंभ 2025 की सफलता का जिक्र करते हुए एक सोशल मीडिया पोस्ट का हवाला दिया, और कहा—

“महाकुंभ में जिसने जो तलाशा, उसे वही मिला।”

  • गिद्धों को केवल लाश मिली, सूअरों को गंदगी मिली।
  • संवेदनशील लोगों को रिश्तों की खूबसूरत तस्वीर मिली।
  • आस्थावानों को पुण्य मिला, सज्जनों को सज्जनता मिली।
  • गरीबों को रोजगार मिला, अमीरों को धंधा मिला।
  • श्रद्धालुओं को साफ-सुथरी व्यवस्था मिली, पर्यटकों को अव्यवस्था मिली।
  • सद्भावना वाले लोगों को जाति रहित व्यवस्था मिली, भक्तों को भगवान मिले

अब विचारने लायक सवाल यह उठता है कि क्या यह सच में एक तटस्थ विश्लेषण था, या फिर यह भाषा का एक चतुर प्रयोग है, जिसमें धार्मिकता, नैतिकता और प्रशासनिक सफलता को एक ही धागे में पिरोने का प्रयास किया गया है?

आइए, इस बयान के प्रत्येक वाक्य की करामात को शब्द-दर-शब्द और अर्थ-दर-अर्थ परखते हैं।


 

गिद्धों को लाश मिली, सूअरों को गंदगी मिली” – किन पर कटाक्ष?

राजा के दरबार में कुछ दरबारी ताली बजाने लगे—”महाराज, यह तो गजब की बात कह दी!” वही, कुछ लोग सोच में पड़ गए—”गिद्ध लाशों पर मंडराते हैं और सूअर गंदगी में जाते हैं, लेकिन यह लाश और गंदगी वहाँ आई कहाँ से?”

अद्भुत दृष्टि से परिपूर्ण राजा ने नजाकत को भांपते ही मुस्कुराते हुए जादुई आईने की ओर इशारा किया—”देखो, जो इसमें देख रहा है, उसे वही दिखेगा जो उसकी नियति में है!”

ठीक वैसे ही, मुख्यमंत्री के इस वाक्य ने कई सवाल खड़े कर दिए

  • क्या यह सिर्फ एक सामान्य उदाहरण था, या सरकार के आलोचकों पर अप्रत्यक्ष कटाक्ष?
  • क्या यह उन पत्रकारों के लिए था, जिन्होंने महाकुंभ में कुछ अनियमितताओं की ओर इशारा किया?
  • क्या यह उन सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए था, जिन्होंने सरकारी दावों की सच्चाई पर सवाल उठाए?
  • यदि गिद्धों को लाश मिली और सूअरों को गंदगी मिली, तो सबसे बड़ा सवाल यह है—वह लाश और गंदगी वहां आई कहां से?

लेकिन राजा मुस्कुराया और फिर से बोला—

“जिसने जो तलाशा, उसे वही मिला!”


संवेदनशील लोगों को रिश्तों की खूबसूरत तस्वीर मिली” – लेकिन किसकी?

दरबार के एक कोने में बैठा एक बुजुर्ग बोला—”महाराज, तस्वीरें तो बहुत हैं, लेकिन कौन-सी असली है?” राजा ने उसे जादुई आईने के सामने खड़ा कर दिया और बोला—
“देखो! जो तुम्हारी सोच है, वही इसमें दिखेगा!”

ठीक इसी तरह, जब मुख्यमंत्री ने कहा कि संवेदनशील लोगों को रिश्तों की खूबसूरती दिखी, तो सवाल यह उठा—

  • क्या यह तस्वीर वही थी जो सरकारी विज्ञापनों और प्रचार वीडियो में दिखाई गई थी?
  • अगर सबकुछ इतना खूबसूरत था, तो फिर कुछ स्वतंत्र रिपोर्टों में अव्यवस्था, बढ़े हुए बजट और सुविधाओं की कमी की बातें क्यों सामने आईं?
  • संवेदनशील लोगों को खूबसूरती नजर आई। यह वाक्य सुनने में सकारात्मक लगता है, लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि जिन्होंने सरकार की व्यवस्था को सफल माना, वे ‘संवेदनशील’ थे और जो अव्यवस्था की तस्वीरें सामने लाए, वे असंवेदनशील?
  • क्या यह संयोग था कि जो पत्रकार, विश्लेषक और समाज के अन्य सतर्क वर्ग वास्तविकता का निरीक्षण करने गए थे, उन्होंने एक अलग तस्वीर देखी?

राजा ने फिर वही जवाब दोहराया—

“जिसने जो तलाशा, उसे वही मिला!”


 

“आस्थावानों को पुण्य मिला, सज्जनों को सज्जनता मिली” – क्या यह निष्कर्ष था या भावनात्मक सुरक्षा कवच?

अब दरबार में बैठा एक विद्वान खड़ा हुआ—”महाराज, अगर सज्जनों को सज्जनता ही मिली, तो इसका मतलब वे पहले से ही सज्जन थे!”
राजा ने उसे जादुई आईने के सामने खड़ा किया और कहा—
“तुम खुद देखो, इसमें वही दिखेगा जो तुम महसूस करोगे!”

ठीक उसी तरह, मुख्यमंत्री का यह वाक्य भी सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन इसका क्या अर्थ हुआ?

  • यह वाक्य सीधे धार्मिक और नैतिक दृष्टिकोण को संतुष्ट करता है, लेकिन क्या यह उन लोगों को अलग नहीं कर देता जो इस आयोजन को केवल आस्था के चश्मे से नहीं देखते?
  • सज्जन अगर सज्जनता लेकर लौटे, तो क्या इसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें आयोजन से अतिरिक्त कुछ नहीं मिला?
  • क्या यह एक सांकेतिक टिप्पणी नहीं कि कुंभ एक दर्पण था—जो जैसा गया, उसे वैसा ही लौटा दिया?
  • सवाल यह है कि क्या कुंभ का उद्देश्य सिर्फ श्रद्धालुओं की आस्था को पुष्ट करना था, या यह सरकार के प्रशासनिक प्रबंधन की भी परीक्षा थी?

राजा मुस्कुराया और फिर वही दोहराया—

“जिसने जो तलाशा, उसे वही मिला!


 

गरीबों को रोजगार मिला, अमीरों को धंधा मिला” – लेकिन किस कीमत पर?

अब दरबार में व्यापारी और मजदूर दोनों खड़े हो गए।

  • गरीब बोला—”महाराज, हमें कुछ दिनों का काम मिला, लेकिन महल के ठेकेदारों को तो सोने की खान मिल गई!”
  • व्यापारी बोला—”महाराज, हमने खूब कमाया, हमने ही यह आयोजन भव्य बनाया!”

राजा ने जादुई आईने की ओर इशारा किया—
“तुम्हारे लिए जो सही है, तुम्हें वही दिखेगा!”

ठीक यही सवाल महाकुंभ में भी उठता लाज़िम था

  • गरीबों को रोजगार मिला, लेकिन किस तरह का? वह अस्थायी रोजगार जो, कुंभ खत्म होते ही खत्म हो गया?
  • अमीरों को धंधा मिला, लेकिन कैसे? क्या बड़े ठेके उन्हीं को दिए गए जो सरकार के करीबी थे?
  • क्या कुंभ एक आध्यात्मिक आयोजन था या सिर्फ बड़े व्यापारिक समूहों के लिए एक बाजार?
  • इसका असली मतलब क्या था? गरीबों को सिर्फ कुछ दिनों की दिहाड़ी और अमीरों को करोड़ों का लाभ?

राजा ने फिर से वही कहा—

“जिसने जो तलाशा, उसे वही मिला”


श्रद्धालुओं को साफ-सुथरी व्यवस्था मिली, पर्यटकों को अव्यवस्था” – यह कैसा न्याय?

अब दरबार में एक यात्री आया और बोला—
“महाराज, अगर व्यवस्था इतनी अच्छी थी, तो मुझे अव्यवस्था क्यों दिखी?”
राजा ने उसे जादुई आईने के सामने खड़ा कर दिया।
“देखो, तुम्हें वही दिखेगा जो तुम्हारी सोच है!”

ठीक यही सवाल महाकुंभ में इस तरीके से उठा कि—

  • क्या सरकार केवल श्रद्धालुओं की थी, या हर नागरिक की?
  • यह कथन एक चौंकाने वाला विरोधाभास पेश करता है। श्रद्धालु और पर्यटक—क्या दोनों के लिए अलग-अलग व्यवस्थाएं थीं?
  • अगर श्रद्धालुओं को स्वच्छता मिली, तो पर्यटकों को क्यों नहीं? क्या व्यवस्था केवल उन्हीं के लिए बनाई गई थी जो सरकार की प्रशंसा कर रहे थे?
  • अगर कोई बाहरी व्यक्ति कुंभ की पारदर्शिता पर कोई सवाल उठाने आया, तो उसे ‘अव्यवस्था’ क्यों मिली?
  • क्या इसका मतलब यह हुआ कि एक ही जगह दो अलग-अलग तस्वीरें थीं—एक सरकार समर्थकों के लिए और दूसरी आलोचकों के लिए?

राजा ने फिर वही जवाब दिया—

“जिसने जो तलाशा, उसे वही मिला!”


 

सद्भावना वाले लोगों को जाति रहित व्यवस्था मिली, भक्तों को भगवान मिले” – लेकिन क्या सच में?

राजा के दरबार में ढोल-नगाड़े बजाए जा रहे थे—

“अब हमारे राज्य में जातिवाद मिट गया है! अब कोई भेदभाव नहीं रहेगा!”

दरबार में बैठे दरबारी ताली बजा रहे थे, लेकिन बाहर जनता में हलचल थी—
“अगर जाति मिट गई, तो क्या सभी को समान अवसर और सुविधाएँ मिलीं?”

सर्वज्ञ दृष्टा राजा ने चतुराईपूर्वक फिर उन्हें वही जादुई आईना दिखाया और कहा—
“जिसकी जैसी सोच, वैसा उसका भाव!”

चतुराई भरे इस वाक्य से यह सवाल उपजे कि..

  • क्या हर वर्ग को बिना किसी भेदभाव के एक जैसी व्यवस्थाएँ प्राप्त हुईं?
  • या फिर, यह दावा सिर्फ शब्दों का खेल था?
  • क्या इसका अर्थ यह हुआ कि जातिविहीन समाज की परिकल्पना केवल एक नारा थी?

“भक्तों को भगवान मिले” – लेकिन कौन भक्त, और कौन नहीं?

दरबार में अगला ऐलान हुआ—
“जो सच्चे भक्त थे, उन्हें भगवान मिल गए!”

अब राज्य की जनता दो हिस्सों में बँट गई

  • पहला पक्ष (राजा के समर्थक)देखा! यह कोई आम आयोजन नहीं था, यह तो सीधा मोक्ष का द्वार था!”
  • दूसरा पक्ष (जो सवाल पूछ रहे थे)—“लेकिन महाराज, भक्तों को भगवान मिले, यह तो ठीक है, पर क्या प्रशासनिक जवाबदेही की कोई ज़रूरत नहीं?”

राजा ने फिर मुस्कराकर जादुई आइना दिखाया और कहा—
“सवाल पूछने वाले भक्त नहीं होते! सच्चे भक्तों को तो भगवान मिल चुके हैं!”

अब यहाँ भी  एक दिलचस्प सवाल खड़ा होता है

  • क्या यह वाक्य सिर्फ धार्मिक भावनाओं को संतुष्ट करने के लिए था?
  • क्या इसका मतलब यह था कि अगर किसी को अव्यवस्था दिखी, तो वह भक्त नहीं था?
  • क्या यह उन सभी सवालों को भावनात्मक रूप से दबाने की कोशिश थी, जो आयोजन की पारदर्शिता और प्रशासनिक जवाबदेही पर उठ सकते थे या उठे थे?

राजा ने जनता की हलचल देखी, मुस्कराया और वही पुराना जादुई वाक्य दोहरा दिया—

“जिसने जो तलाशा, उसे वही मिला!


 

क्या ‘जो देखा’ वही मिला, या ‘जो दिखाया गया’ वही दिखा?

मुख्यमंत्री का यह बयान एक संतुलित राजनैतिक बयान था, जिसे सतही तौर पर देखने से यह एक साधारण टिप्पणी लगती है, लेकिन अगर इसे गहराई से समझा जाए, तो यह विरोधियों को न केवल कटाक्ष करने बल्कि उनकी आलोचनाओं को कमजोर करने के लिए तैयार किया गया था

  • यह बयान आलोचना को दबाने की एक रणनीति हो सकता है।
  • इसमें वास्तविक प्रशासनिक कमियों को नजरअंदाज किया गया हो।
  • यह धार्मिक भावना को संतुष्ट करता है, लेकिन ज़मीनी हकीकत को स्पष्ट नहीं करता।

आखिर में सवाल यह उठता है—
“यह गूढ़ सत्य था, या एक सोची-समझी रणनीति?”

इसका उत्तर जनता के विवेक पर छोड़ना ही उचित होगा!


सत्ता, सत्य और पत्रकारिता


सत्ता में रहते हुए कटाक्ष करना आसान होता है, क्योंकि आपकी आवाज़ ऊँची होती है। लेकिन सत्ता की भाषा में सच को खोजना कठिन होता है, क्योंकि उसमें कई परतें होती हैं। यह लेख उन्हीं परतों को हटाने का प्रयास है—ताकि पाठक खुद तय कर सके कि ‘कुंभ में जो दिखाया गया, वह सच था या सच को दिखाने की कोशिश?’

 

महाकुंभ के समापन के बाद “खुली किताब ” ने इस भव्य आयोजन पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस रिपोर्ट में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस चर्चित बयान—“महाकुंभ में जिसने जो तलाशा, उसे वही मिला।”को हुबहू प्रस्तुत किया गया था। इसके बाद कई पाठकों ने व्यक्तिगत रूप से इस बयान के मायने को लेकर अपनी जिज्ञासा और प्रतिक्रियाएँ जाहिर कीं। इन व्यापक प्रतिक्रियाओं को ध्यान में रखते हुए यह विश्लेषणात्मक लेख तैयार किया गया, ताकि पाठकों की जिज्ञासा को संतोषजनक तरीके से संबोधित किया जा सके।

 

यह विश्लेषण किसी तात्कालिक प्रतिक्रिया या देखादेखी में नहीं लिखा गया, बल्कि पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों—तथ्य, संदर्भ और निष्पक्ष विश्लेषण—के आधार पर तैयार किया गया है। इसका उद्देश्य सिर्फ राजनीतिक बयानबाजी पर प्रतिक्रिया देना नहीं, बल्कि सत्ता के शब्दों में छुपे संकेतों को उजागर करना है। लोकतंत्र में सार्वजनिक बयानों की पड़ताल करना और उनके निहितार्थ को समझना ही पत्रकारिता की असली ज़िम्मेदारी होती है।

 

इस लेख को पढ़ने के बाद कुछ कट्टर समर्थकों के मस्तिष्क में यह विचार आ सकता है कि मैं किसी के पक्ष या विपक्ष में खड़े होकर इस बयान की समीक्षा कर रहा हूँ। लेकिन क्या किसी कथन का विश्लेषण करना मात्र समर्थन या विरोध का संकेत होता है? मेरा मानना है कि लोकतंत्र में सवाल उठाना, विश्लेषण करना, और सच की तह तक पहुँचना ही चौथे स्तंभ का सबसे बड़ा कर्तव्य है।

 

पत्रकारिता केवल सूचनाओं का माध्यम नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा है।
यदि यह आत्मा सवाल उठाना बंद कर दे, तो लोकतंत्र केवल एक भ्रम बनकर रह जाएगा।

इस आलेख का प्रत्येक विश्लेषणात्मक शब्द उसी जिम्मेदारी का हिस्सा है, जिसे चौथे स्तंभ के प्रहरी के रूप में निभाना आवश्यक है।

 

 ‘सच की तलाश कभी नहीं रुकनी चाहिए, क्योंकि जब कलम चलेगी, तब बदलाव भी आएगा !’


लेखक ‘खुली किताब‘ के संस्थापक एवं संपादक हैं।

 

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