
न्याय का आइना
अहमदाबाद, 15 फरवरी। कभी-कभी जिंदगी हमें ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है, जहां हम बेवजह कानूनी झंझटों में उलझ जाते हैं।
कुछ ऐसा ही हुआ अहमदाबाद की राखीदेवी उमाशंकर अग्रवाल के साथ। चार साल पहले जिस कंपनी से नाता तोड़ लिया था, उसी कंपनी के नाम पर हुए चेक बाउंस मामले में उन्हें अदालत के चक्कर काटने पड़े।लेकिन, गुजरात हाई कोर्ट ने आखिरकार उन्हें इंसाफ देकर राहत दी।
मामला क्या था?
मामला ₹23.73 लाख के चेक बाउंस का था।शिकायतकर्ता Religare Finvest Ltd. ने वर्ष 2017 में अहमदाबाद ग्रामीण मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM) की अदालत में केस दायर किया था। आरोप था कि एक कंपनी ने ₹23,73,500 का लोन लिया था, जिसके बदले कैनरा बैंक का चेक जारी किया गया। यह चेक 13 फरवरी 2017 को बैंक में जमा हुआ, लेकिन ‘अपर्याप्त राशि’ (Insufficient Funds) की वजह से बाउंस हो गया।
इसके बाद 28 फरवरी 2017 को कानूनी नोटिस भेजा गया, लेकिन भुगतान न होने पर केस दर्ज कर दिया गया। चूंकि राखीदेवी उस कंपनी की पूर्व निदेशक रह चुकी थीं, इसलिए उनका नाम भी अभियुक्तों की सूची में जोड़ दिया गया।
कहां हुई चूक?
राखीदेवी के एडवोकेट ने अदालत में दलील दी कि उन्होंने 24 जुलाई 2013 को ही कंपनी से इस्तीफा दे दिया था। कंपनी के बोर्ड ने उनका इस्तीफा मंजूर कर लिया था, और इसकी विधिवत जानकारी कंपनी रजिस्ट्रार (ROC) के रिकॉर्ड में भी दर्ज थी। इसके बावजूद, 2017 के लेन-देन के मामले में उन्हें आरोपी बना दिया गया, जो सरासर अन्याय था।
हाई कोर्ट का रुख
गुजरात हाई कोर्ट ने इस मामले पर सख्त रुख अपनाते हुए कहा:
“चार साल पहले इस्तीफा दे चुकी महिला को अभियुक्त बनाना सरासर अन्याय है।”
परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) की धारा 138 के तहत चेक बाउंस मामलों में वही व्यक्ति जिम्मेदार माना जाता है, जो उस समय कंपनी के संचालन और निर्णय प्रक्रिया में सक्रिय हो। चूंकि राखीदेवी ने 2013 में ही कंपनी छोड़ दी थी, इसलिए उन्हें आरोपी बनाने का कोई औचित्य नहीं था।
अदालत का फैसला
न्यायमूर्ति दिव्येश ए. जोशी ने अहमदाबाद ग्रामीण अदालत में चल रहे क्रिमिनल केस नंबर 2986/2017 को रद्द (Quash) करने का आदेश दिया और राखीदेवी को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया गया।
फैसले का व्यापक असर
इस निर्णय से उन लोगों को बड़ी राहत मिली है, जो कंपनी छोड़ने के बाद भी कानूनी विवादों में फंसा दिए जाते हैं। गुजरात हाई कोर्ट का यह फैसला ऐसे मामलों के लिए एक मिसाल (नज़ीर) बन सकता है, जिससे भविष्य में बेगुनाह लोगों को राहत मिलेगी।