
नई दिल्ली, 13 फरवरी। अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के एक पुराने निर्णय में महिला विरोधी भाषा के प्रयोग पर कड़ी आपत्ति जताई है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि किसी महिला को ‘अवैध पत्नी’ या ‘वफादार रखैल’ जैसे अपमानजनक शब्दों से संबोधित करना उसके गरिमामय जीवन के अधिकार का उल्लंघन है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर नागरिक को प्राप्त है।
जस्टिस अभय एस. ओक, जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने यह टिप्पणी हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 25 के तहत स्थायी गुजारा भत्ता के अधिकार से संबंधित एक संदर्भ पर सुनवाई के दौरान की। पीठ ने स्पष्ट किया कि भले ही किसी विवाह को धारा 11 के तहत अमान्य घोषित कर दिया जाए, पति या पत्नी में से कोई भी स्थायी गुजारा भत्ता पाने का हकदार हो सकता है।
महिला के सम्मान को ठेस पहुंचाने वाली भाषा अस्वीकार्य: सुप्रीम कोर्ट
न्यायालय ने विशेष रूप से बॉम्बे हाईकोर्ट की फुल बेंच द्वारा वर्ष 2004 में दिए गए फैसले पर चिंता जताई। उस फैसले में अमान्य विवाह में पक्षकार महिला के लिए ‘अवैध पत्नी’ और ‘वफादार रखैल’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “हमारे संविधान के मूल्यों और आदर्शों के अनुरूप यह अपेक्षित है कि न्यायिक निर्णयों में प्रयुक्त भाषा किसी व्यक्ति, विशेषकर महिलाओं की गरिमा का सम्मान करे। ऐसे शब्दों का प्रयोग न्यायालयों से कतई उचित नहीं है, विशेषकर तब जब अमान्य विवाह में पति के लिए ऐसे विशेषणों का प्रयोग नहीं किया गया। यह स्त्री-द्वेषपूर्ण दृष्टिकोण को दर्शाता है।”
फैसले की मुख्य बातें:
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार हर नागरिक को प्राप्त है।
- अमान्य विवाह में महिला के लिए ‘अवैध पत्नी’ या ‘वफादार रखैल’ कहना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
- बॉम्बे हाईकोर्ट के 2004 के फैसले में प्रयुक्त महिला विरोधी भाषा पर सुप्रीम कोर्ट ने निराशा जताई।
- विवाह अमान्य घोषित होने के बावजूद पति-पत्नी में से कोई भी स्थायी गुजारा भत्ता पाने का अधिकारी है।
संवेदनशील मामलों में भाषा का चयन संयमित हो: न्यायालय
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में न्यायपालिका को अत्यंत संयमित और गरिमामयी भाषा का प्रयोग करना चाहिए। विशेष रूप से महिलाओं के संबंध में टिप्पणियों में संवेदनशीलता बरतने की जरूरत है, ताकि सामाजिक न्याय और लैंगिक समानता के संवैधानिक मूल्यों को ठेस न पहुंचे।
उल्लेखनीय है कि यह फैसला न्यायपालिका के भीतर भाषा और दृष्टिकोण में आवश्यक सुधार की ओर संकेत करता है, जिससे महिलाओं की गरिमा सुनिश्चित की जा सके। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले भी महिला गरिमा और सम्मान से जुड़े मामलों में महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं।